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धर्मशास्त्र का इतिहास
लगाने (मनु ६ । २७६) पर हाथ काटकर शूली पर चढ़ा देने की व्यवस्था दी गयी है । याज्ञ० (२१२७४ ), मनु ( ६।२७७ ) एवं विष्णुधर्मसूत्र ( ६ १३६) ने जेबकतरों (ग्रन्थिभेदकों) के प्रथम अपराध पर अंगूठा एवं तर्जनी काट लेने की, दूसरे अपराध पर हाथ-पैर काट लेने की तथा तीसरे अपराध पर मृत्यु दण्ड की व्यवस्था दी है। चोर को चोरी के सामान की पूर्ति भी करनी पड़ती थी (मनु ८1३२०, याज्ञ० २।२७०, विष्णुधर्मसूत्र ५६६ एवं नारद, परिशिष्ट २१ ) । नारद (परिशिष्ट २२-२४ ) के अनुसार साधारण चोरी के सामान के मूल्य का पांच गुना देना पड़ता था, किन्तु मनु (८१३२६-३२६) ने केवल दूने की बात कही है ।
गौतम (१२।१२-१४), मनु ( ८।३३७-३३८) एवं नारद (परिशिष्ट ५१-५२ ) के अनुसार उच्च जातियों को अपेक्षाकृत अधिक दण्ड मिलता है, यथा-- शूद्र को चोरी की वस्तु का आठ गुना देना पड़ा तो उसी अपराध में वैश्य, क्षत्रिय एवं ब्राह्मण को क्रम से १६, ३२ एवं ६४ गुना देना पड़ता है, क्योंकि उच्च स्थिति एवं संस्कृति के अनुसार इन्हें अधिक ईमानदार होना चाहिए। मनु ( ८1३८०) ने लिखा है कि सामान्यतः ब्राह्मण को किसी भी अपराध में मृत्युदण्ड नहीं मिलना चाहिए, उसे देश- निर्वासन का दण्ड मिल सकता है, किन्तु वह अपनी सम्पत्ति अपने साथ ले जा सकता हैं । किन्तु अन्य अपवाद भी मिलते हैं। कात्यायन ( ८२३ ) का कथन है कि मानवों ( मनु के अनुयायियों या सम्प्रदाय के लोगों) के अनुसार चोरी के सामान के साथ पकड़े गये लोगों को तत्क्षण प्रवासित कर देना चाहिए। किन्तु गौतम सम्प्रदाय के मत से ऐसा नहीं करना चाहिए, क्योंकि इस नियम से देश में लोगों की कमी हो जायगी। विवादरत्नाकर ( पृ० ३३२ ) ने कात्यायन के इस कथन को विद्वान ब्राह्मणों के लिए ही ठीक माना है। विवादरत्नाकर ( पृ० ३३२ ) एवं विवादचिन्तामणि ( पृ० ६२ ) ने कात्यायन के दो पद्य ( ८२४-८२५) उद्धृत कर व्यक्त किया है कि यदि अविद्वान् ब्राह्मण चोरी के सामान के साथ या बिना सामान पकड़ लिया जाय तो उसे उपयुक्त लक्षणों से दाग देना चाहिए और उसकी सारी सम्पत्ति छीन ली जानी चाहिए, किन्तु ऐसा करने के पूर्व अपराध निश्चित रूप से सिद्ध हो जाना आवश्यक है । दूसरे पद्य में यह आया है कि यदि चोर ब्राह्मण न तो विद्वान् हो और न धनी तो उसके पैरों में बेड़ी डाल देनी चाहिए, उसे कम भोजन देना चाहिए और मृत्यु पर्यन्त उससे राजा द्वारा काम कराना चाहिए । गौतम ( १२१३६ - ४८), नारद (परिशिष्ट १३-१४), मनु ( ६ । २७१ एवं २७८), कात्यायन (८२७) आदि के मत से जो लोग जानबूझकर चोरों को भोजन, अग्नि (जाड़े में तापने के लिए) जल या शरण देते हैं या चोरी की वस्तु ग्रहण करते हैं। या क्रय करते हैं या छिपाते हैं, उन्हें चोरों के समान ही दण्ड मिलता है । इस विषय में देखिये याज्ञवल्क्य (२।२७६) ।
कुछ विषयों में बिना आज्ञा लिये वस्तुओं का उपयोग अपराध नहीं माना जाता । गौतम (१२।२५ ), मनु ( ८1३३६ = मत्स्यपुराण २२७।११२ - ११३), याज्ञ० (२।१६६) ने तीन उच्च जातियों के लोगों को घास, ईंधन, पुष्प, गाय को खिलाने के लिए पत्ते आदि तथा देवपूजा के लिए पुष्प आदि ले लेने पर तथा अरक्षित फल तोड़ने पर अपराधी नहीं ठहराया है। ऐसा करने पर न तो दण्ड मिलता है और न पाप ही लगता है ( कुल्लूक, मनु ८|३३६ ) 1 एक स्मृति में आया है कि बिना मांगें ऐसा करने पर हाथ काट लिये जाने चाहिए, किन्तु मिताक्षरा ( याज्ञ० २।१६६ ) एवं अपरार्क ( पृ० ७७४) आदि ने ऐसा केवल उन लोगों के लिए माना है जो द्विज नहीं हैं और जो किसी कठिनाई में नहीं हैं या जो गाय को खिलाने या पूजा के लिए ऐसा नहीं करते हैं ।
यह विषय आदि काल से ही विचाराधीन रहा है । आपस्तम्बधर्म सूत्र ( १०।२८।१-५) में आया है कि कौत्स,
३. सन्धिच्छेदकृतो ज्ञात्वा शूलमा ग्राहयेत्प्रभुः । बृहस्पति ( व्यवहारप्रकाश पृ० ३८८ ) ।
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