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________________ अध्याय २४ स्तेय (चोरी) ऋग्वेद में तस्कर, स्तेन एवं तायु का बहुधा उल्लेख हुआ है, यथा “गौएँ हमसे न बिछुड़ें, कोई तस्कर (चोर) उन्हें पीड़ा न पहुंचाये" (ऋग्वेद ६।२८।३), "पूषा मार्गों की रक्षा करता है और गुप्त धनों को जानता है, जैसा कि कोई तस्कर जानता है" (ऋ० ८।२६।६) । ऋग्वेद (१०।४।६) से ज्ञात होता है कि चोर लोग साहसी होते हैं तथा लोगों को रस्सियों से बाँध लेते हैं, तथा तस्कर रात्रि में दिखाई पड़ते हैं (ऋग्वेद १११६१।५) ।तायु शब्द भारत-पारसी शब्द है (ऋ० १०५०।२, ४॥३८॥५, ६।१२।५) । स्तेन का अर्थ है 'गाय चुराने वाला' (ऋ० ६।२८।७) । स्तेन को पकड़ लेने पर रस्सी से बाँध लिया जाता था (ऋ०८।६७।१४) । ऋग्वेद (७॥५५॥३) में कुत्ते को स्तेन एवं तस्कर के पीछे दौड़ने को कहा गया है। लगता है, यहाँ स्तेन का अर्थ है वह चोर जो सम्पत्ति को गुप्त रूप से उठा ले जाता है तथा तस्कर वह है जो खुले आम चोरी करता है। वाजसनेयी संहिता (११७६)तथा तैत्तिरीय संहिता(४११०२) में स्तेन तथा तस्कर के अतिरिक्त मलिम्लु शब्द भी आया है । अथर्ववेद (४॥३) में भेड़ियों, व्याघ्रों एवं तस्करों के विरुद्ध मन्त्र कहे गये हैं। मनु (८।३३२), कौटिल्य (३।१७), नारद (२७।१२) आदि में स्तेय को साहस से पृथक् माना गया है । कात्यायन (८1१०, दायभाग ६।६, पृ० २२४) ने स्तेय के विषय में यों लिखा है--जो परद्रव्य-हरण प्रच्छन्न होता है या प्रकाश में होता है या गत्रि या दिन में होता है, उसे स्तेय कहते हैं, सोते हुए या असावधान या उन्मत्त लोगों के धन का कई साधनों से हर लेने को स्तय कहते हैं (नारद १७/१७)। चोरी की गयी वस्तु के अनसार यह तीन प्रकार का होता है-साधारण (मिट्टी के बरतन, आसन, खाट, लकड़ी, खाल, घास, दाल, भोजन); मध्यम (रेशम के अतिरिक्त अन्य परिधान, गाय-बैल के अतिरिक्त अन्य पशु, सोने के अतिरिक्त अन्य धातु, चावल एवं जो) तथा गम्भीर (जब सोने के जेवर, रेशम के वस्त्र, स्त्रियाँ, पुरुष, पालतू पशु, हाथी, घोड़े तथा ब्राह्मणों या मन्दिरों का धन चोरी में जाता है)। और देखिए नारद (१७।१३-१६) एवं याज्ञ० (२।२७५) । मनु (६।२५६) एवं बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३१ एवं व्यवहारप्रकाश पृ० ३८६) के अनुसार तस्कर (चोर) या तो प्रकाश (प्रकट या खुले रूप वाले) या अप्रकाश (गुप्त) होते हैं । गलत तराजू एवं बटखरे वाले व्यापारी, १ न ता नन्ति न दभाति तस्करो नासामामित्रो व्यथिरा दधर्षति । ऋ० (६॥२८॥३); पथ एकः पीपाय तस्करो यथां एष वेद निधीनाम् ॥ ऋ० (८।२६६); तनूत्यजेव तस्करा वनर्गु रशनाभिर्दशभिरभ्यधीताम् । ऋ० (१०।४।६); और देखिए निरुक्त (३।१४)। २. ये जनेषु मलिम्लवः स्तेनामस्तस्करा वने । ये कक्षेष्वघायवस्तांस्ते दधामि जम्भयोः॥ वाजसनेयी सं० (११७६) । तैत्तिरीय संहिता की टोका में आया है-'स्तेना: गुप्तचौराः, तस्कराः प्रकटचौराः, अतिप्रकटा निर्भया प्रामेषु बन्दिकरा मलिम्लुवः।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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