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धर्मशास्त्र का इतिहास
पर वैश्य के लिए लागू की है। मनु (८।२८०) ने यही दण्ड उस शूद्र के लिए दिया है जो किसी उच्च जातीय को मारने के लिए हाथ या लाठी उठाता है। मनु (८।२८१-२४३ - नारद १८।२६-२८) ने कहा है कि यदि कोई नीच जाति का व्यक्ति किसी उच्च जाति के व्यक्ति के साथ ही एक आसन पर उद्धत रूप से बैठे तो उसकी कमर तप्त लोहे से दाग कर उसे निष्कासित कर देना चाहिए या उसके चूतड़ पर घाव कर देना चाहिए (इस प्रकार कि वह मरने न पाये)। यदि कोई शूद्र किसी ब्राह्मण पर निर्भर होकर थूक दे तो उसके अधर काट लिये जाने चाहिए,यदि कोई शूद्र किसी ब्राह्मण पर मल मन्त्र फेंके तो अपराधी अंगों को काट लेना चाहिए तथा यदि कोई शूद्र किसी ब्राह्मण के बाल,पैर,दाढी, गरदन ,अण्डकोषों को पकड़कर खींचे तो उसके हाथ काट लिये जाने चाहिए। यदि किसी अकेले व्यक्ति को कई लोग मिलकर पीटें तो प्रत्येक को उस अपराध का दूना दण्ड लगता है (याज्ञ० २।२२१; कौटिल्य ३।१९; विष्णुधर्मसूत्र ५१७३)। कौटिल्य (३।१६), मनु (८।२८७), याज्ञ ० (२।२२२), बृहस्पाति, कात्यायन (७८७) विष्णुधर्मसूत्र (५७५-७६) ने लिखा है कि घायल कर देने पर अपराधी को दवा, भोजन तथा अन्य व्ययों की व्यवस्था तब तक करनी पड़ती है जब तक कि वह व्यक्ति काम करने के योग्य न हो जाय ।
सम्पत्ति नाश करने तथा पशुओं को मारने या अंग-विच्छेद करने पर कोटिल्य, मन, याज्ञवल्क्य आदि ने विभिन्न दण्डों की व्यवस्था दी है। पशुओं को मार डालने या पीटने पर मनु (८।२६६-२६८) ने कई प्रकार के इण्डों की व्यवस्था दी है जो पशुओं के मूल्य आदि पर निर्भर है। वृक्षों, झाड़ियों एवं लताओं को काट-पीट करने पर भी दण्डव्यवस्था है (याज्ञ० २।२२७-२२६, कौटिल्य ३।१६ एवं कात्यायन ७६३) । याज्ञवल्क्य (२।२१४) ने लिखा है कि यदि उन्मत्त होने पर या पागल हो जाने पर या भ्रमवश कोई किसी पर कीचड़, मिट्टी, थूक या मल मूत्र फेंक दे तो वह दण्डित नहीं होता । किन्तु इन मामलों पर कौटिल्य ने वास्तविक दण्ड का आधा लगाया है। स्वतः दण्डप्रयोग के अवसर
अपनी सम्पत्ति या प्राण की रक्षा के लिए व्यक्ति क्या कर सकता है ? इस विषय में धर्मशास्त्रकारों ने विवेचन उपस्थित किया है। आततायियों के विषय में चर्चा करते समय इस विषय में हमने इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग के मध्याय में कुछ कह दिया है। किसी आततायी ब्राह्मण को मार डालने के विषय में बहुत-से मत-मतान्तर हैं, किन्तु किसी भी जाति के आततायी को मार भगाने या बलपूर्वक हटा देने (भले ही उसकी हत्या हो जाय) के विषय में कोई भेद नहीं है।गौतम (७२५) ने प्राण-भय के समय ब्राह्मण को भी अस्त्र-शस्त्र से अपनी रक्षा करने को कहा है। बौधायन (२२।८०) मनु, (८(३४८।३४६) आदि ने कहा है कि ब्राह्मण एवं वैश्य भी यदि पातकियों द्वारा धर्म-कार्य में बाधा पायें, या जब बाह्याक्रमण से गड़बड़ी उत्पन्न हो जाय,या जब उनके प्राणों पर आ जाय,या जब उन्हें गायों या सम्पति या स्त्रियों या ब्राह्मणों की रक्षा करनी होतो बल का प्रयोग कर सकते हैं। मिताक्षरा(याज्ञ०२।२८६) ने मनु के इस कथन को उसी दशा में उचित माना है जब कि समय से राजा को सूचना न मिल सके और देरी होने से भयंकरता की उपस्थिति हो जाने वाली हो।
कात्यायन (८००)का कथन है कि प्राण लेने पर उद्यत व्यक्ति को मारने में कोई अपराध नहीं है, किन्तु यदि आक्रामक घेर लिये जायँ तो उन्हें बन्दी बना लेना चाहिए और मारना नहीं चाहिए । अपरार्क याज्ञ० ३।२२७) का कथन है कि जो आग लगाने या मार डालने पर तुला हो या आग लगा रहा हो या मार रहा हो तो उसे आततायो कहना
७. महाजनस्यक धनतः प्रत्येक द्विगुणो दण्डः । अर्थशास्त्र (३१६)।
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