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मार-पीट के अपराध
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पहले आरम्भ किया तो दोनों को बराबर-बराबर दण्ड मिलना चाहिए। यदि दो व्यक्ति लड़ जायेंतोप्रथम आक्रामक को तथा जो आगे बढ़कर लगातार आक्रमण करता रहता है, उसे अपेक्षाकृत अधिक दण्ड मिलना चाहिए। यदि श्वपाक, मेद, चाण्डाल, व्याध, हाथीवान, व्रात्य, दास आदि नीच लोग कुलीनों एवं आचार्यों पर दण्डपारुष्य प्रयुक्त करें तो अच्छे व्यक्तियों द्वारा उन्हें वहीं एवं उसो समय दण्डित करना चाहिए (अर्थात् उन पर कोड़े आदि बरसाने चाहिए ! )' किन्तु यदि ऐसा न हो सके तो राजा को चाहिए कि वह उन्हें उनके अपराध के अनुरूप शारीरिक दण्ड दे; किन्तु उनसे अर्थ-दण्ड न ले, क्योंकि उनका धन गहित माना गया है।
विभिन्न स्मृतियों में विभिन्न दण्डों की व्यवस्था पायी गयीहै और हम उनके विस्तार में यहाँ नहीं पड़ेंगे। कात्यायन (७८६) नं व्यवस्था दी है कि जिस प्रकार वाक्पारुष्य में दण्ड गाली देनेवाले एवं जिसे गाली दी चाती है उसकी जाति के अनुसार दिया जाता है, उसी प्रकार दण्डपारुष्य में भी होता है। अर्थात् यदि अपराधी मार खानेवाले से हीन जाति का हो तो उसे अधिक दण्ड दिया जाता है तथा यदि मारने वाला मार खाने वाले से उच्च जाति का हो तो कम दण्ड दिया जाता है। मनु (८।२८६) एवं उशना (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० ३२८) ने मनुष्य एवं पशु को लगे हुए घाव के अनुसार दण्ड देने की व्यवस्था दी है। संस्कृत साहित्य में दण्डपारुष्य पर दण्ड देने के विषय में प्राचीनतम उल्लेख तैत्तिरीय संहिता (२।६।१०।२) में प्राप्त होता है--"जो ब्राह्मण को मारने की धमकी देता है उसे सौ (गाय या निष्क) का दण्ड. जो व्राह्मण को पीटता है उसे एक सहस्र का दण्ड तथा जो इस प्रकार आक्रमण कर रक्त निकाल देता है उसे उतने वर्षों तक पितरों को न देखने का (शाप का) दण्ड मिलता है जितने धूलिकण उस रक्त में गिरकर मिल जाते हैं।" इस विषय में देखिए जैमिनि (४११७), गौतम (२१।२०-२२) एवं मनु (११।२०६-२०७) जहां उपर्युक्त कथन की विभिन्न व्याख्याएँ उपस्थित की गयी हैं। कौटिल्य (३।१६) ने विभिन्न दण्डपारुष्यों के लिए भिन्न-भिन्न दण्डों की व्यवस्था दी है।
बहस्पति का कहना है कि यदि कोई धूल, विभूति (राख) आदि किसी पर फेंके या किसी को हाथ से पीट दे तो उस पर एक माष का दण्ड लगता है, यदि वह किसी को छड़ी या पत्थर या ईंट से मारे तो दोमाष देने पड़ते हैं। किन्तु यह व्यवस्था बराबर की जाति वालों के लिए है। यदि कोई किसी दूसरे की पत्नी या अपने से उच्च जाति वाले को मारे या पीटे तो दण्ड उसी के अनुरूप अधिक लगता है। जो किसी के चर्म को काट देता है या आक्रमण से रक्त निकाल देता है तो उसे सौ पण देने पड़ते हैं, जो काट कर मांस निकाल देता है उसे छः माष देने पड़ते हैं तथा जोहड्डी तोड़ देता है उसे निष्कासन का दण्ड मिलता है (मनु ८।२८४ = नारद १८।२६) । कात्यायन ने कान, अधर, नाक, पाँव, आँख, जीभ, लिंग, हाथ काटने पर सबसे बड़े दण्ड की तथा घायल करने पर मध्यम दण्ड की व्यवस्था दी है। यदि शूद्र तीन उच्च वर्गों को पीटे तो जिस अंग से पीटे उसका वह अंग काट लिया जाना चाहिए (गौतम १२।१,कौटिल्य ३।१६, मनु ८।२७६, याज्ञ० २।२१५ एवं बृहस्पति) । मिताक्षरा (याज्ञ० २।२१५) ने यही बात भत्रिय को पीटने
५. अस्पृश्यपूर्तदासानां म्लेच्छानां पापकारिणाम्। प्रतिलोमप्रसूतानां ताडनं नायंतो वमः ।। कात्यायन (अपरार्क पृ०८१३, विवादरत्नाकर पृ० २७८);प्रातिलोम्यास्तथा चान्त्याः पुरुषाणां मलाः स्मृताः । ब्राह्मणातिक्रमे वघ्या न वातव्या पनं क्वचित् ॥ विवावरत्नाकर (पृ० २६६)।
६. वाक्पारुष्ये यवोक्ताः प्रातिलोम्यानुलोमतः । तथैव दण्डपारुष्ये पात्या दण्डा यथाश्मम् ।। कात्यायन ७८६ (पराशरमाधवीय ३, पृ० ४१८; विवादरत्नाकर २६६) । यत्र नोक्तो दमः सर्वरानन्त्यात्तु महात्ममिः । तत्र कार्ग परिज्ञाय कर्तव्यां वण्डधारणम् ॥ कार्य प्राणिषु प्राण्यन्तररुत्पादितं दुःखम् । स्मृ० च० २, पृ० ३२८ ।
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