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धर्मशास्त्र का इतिहास से पता चलता है कि लगभग १२ वीं शताब्दी में जाति-सम्बन्धी अन्तर तथा छोटे-बड़े अपराध-सम्बन्धी विभेद प्रायः लुप्त हो चुके थे। दो-एक बातें विचारणीय है। देखिए मनु (८।२६८-२७२ एवं २७४, नारद १८।१६-१७ एवं २२२४) । यहाँ तक कि सच्ची गाली (यदि कोई व्यक्ति कोध में चोरी में पकड़े गये किसी पूर्व अपराधी को चोर कहे या अन्धे को अन्धा या लँगड़ा कहे) के लिए मनु (८।२७४ = नारद १८१८)ने एक कार्षापण का दण्ड लगाया है। कौटिल्य (३।१८) एवं विष्णु० (श२७) ने ऐसे अपराधों में क्रम से ३ एवं २ पणों की दण्ड-व्यवस्था दी है। यदि गाली झूठमूठ में दी गयी हो तो इस प्रकार की सच्ची बातों के लिए जो दण्ड लगता है उसका दूना दण्ड देना पड़ता है। यदि व्याज-स्तुति की जाय, अर्थात् किसी एक आँख वाले या अन्धे को सुन्दर आखों वाला कहा जाय तो दण्ड लगता है (कौटिल्य ३.१८)। यदि किसी को प्रसिद्ध पतित या चोर के साथ रहने के लिए मना किया जाय तो दण्ड नहीं लगता (कात्यायन ७७६)। यदि गाली देनेवाला यह कहे कि "अबोधता, असावधानी, वैर या मित्रता के कारण मैने ऐसा कह दिया है और अब ऐसा नहीं करूँगा" तो उसे केवल आधा दण्ड लगता है (कात्यायन ७७५; विवादरत्नाकर पृ० २४६; विवादचिन्तामणि प०७०; स्मतिचन्द्रिका २,प० ३२७; व्यवहारप्रकाश प०३८४: कौटिल्य: कर्तव्यरत राजा को गाली दे तो उसकी जीभ काट ली जाती है और उसकी सारी सम्पत्ति छीन ली जाती है (नारद १८।३० एवं याज्ञ० २।३०२)। आपस्तम्दधर्मसून (२११०।२७।१४) ने धर्मरत तीन उच्च वर्गों को गाली देनेवाले शद्र की जीभ काट लेने की व्यवस्था दी है।
दण्डपारुष्य
कौटिल्य (३.१६) ने इस शीर्षक के अन्तर्गत स्पर्श करने, धमकी देने या वास्तविक रुप से आहत करने को सम्मिलित किया है। नारद (१८।४) के मत से हाथ, पैर, हथियार या किसी अन्य वस्तु (ढेला आदि) से शरीरांगों पर घाव करने या राख आदि से गंदा कर देने या एक-दूसरे को पीड़ा देने को इसके अन्तर्गत रखा है। मिताक्षरा (याज्ञ० २१२१२) ने तो पशुओं को पीड़ा पहुँचाने तथा पेड़ गिरा देने को भी इसके भीतर ही गिना है। नारद (१८।५-६)के मत से दण्डपारुष्य के तीन प्रकार हैं--प्रथम, मध्यम एवं उत्तम, यथा--आक्रमण करने की तैयारी करना, बिना किसी अनुशय या परिताप के आक्रमण करना और घायल करना। इन तीनों को पुनः तीन भागों में बांटा गया है, जो व्यक्ति या वस्तु के हीन, मध्यम या उच्च मूल्य पर निर्भर माने गये हैं। स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० ३२७) एवं व्यवहारप्रकाश (पृ० ३७०) के परिशिष्ट के श्लोक में आया है-वह व्यक्ति दण्डपारुष्य का अपराधी है जो पीड़ा पहुंचाता है या रक्त निकाल देता है, क्षत करता है, तोड़ता है, काटता है और शरीरादि अंगों को फाड़ देता है। बृहस्पति ने लिखा है कि हाथ,पत्थर लाठी, राख,पंक, धूलि या हथियार से मारना या चोट पहुंचाना दण्डपारुष्य कहलाता है।
मिताक्षरा (याज्ञ ० २।२१२) ने वाक्पारुष्य एवं दण्डपारुष्य के विषय में कुछ सिद्धान्त बनाये हैं । जो व्यक्ति गाली दिये जाने या आक्रमण किये जाने पर अपनी ओर से वैसा ही अपराध नहीं करते उन्हें प्रशंसित करना चाहिए, किन्तु जो स्वयं प्रत्युत्तर दे देते हैं उन्हें भी दण्डित करना चाहिए, किन्तु उन्हें प्रथम गाली देनेवाले तथा मारने-पीटने वाले की अपेक्षा कम दण्ड मिलना चाहिए। किन्तु दो व्यक्ति यदि आपस में उलझ जायें और यह न प्रकट हो सके कि किसने
३. दण्डपारुष्यं स्पर्शनमवगूर्णनं प्रहतमिति । अर्थशास्त्र (३।१६)।
४. हस्तपाषाणलगुखर्भस्मकर्दमपांशुभिः । आयुधश्च प्रहरणं दण्डपारुष्यमुच्यते ॥ बृहस्पति (विवादरत्नाकर पृ० २५६)।
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