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________________ मार्ग, खेत, पुल, बाँध आदि के सीमा-विवाद ८१७ समय में (सदा नहीं) आजा सकें । कौटिल्य आदि ने जनमार्गों एवं गृहों के पास मल-मूत्र त्याग के विषय में दण्ड बतलाये हैं। वृहस्पति एवं कात्यायन (७५६) का कथन है कि गाड़ियों आदि से जनमार्ग का अवरोध नहीं करना चाहिए उस पर कोई पेड़-पौधा नहीं लगाना चाहिए। जो लोग ऐसा करते हैं अर्थात् गड्ढा खोदते हैं या पेड़ लगाते हैं और जानबूझकर वहाँ मल-मत्र त्याग करते हैं उन पर एक माषक का अर्थ-दण्ड लगता है और जो लोग मार्ग पर अपने गुरु, वृद्धजन या राजा को सबसे पहले नहीं जाने देते उन पर भी अर्थ-दण्ड लगता है। मनु (८।२८२) ने जनमार्ग पर बिना किसी रोग से ग्रस्त होने पर मल-मूत्र त्यागने के दोषी पर दो कार्षापण का दण्ड लगाया है और उसे स्वच्छ करने को कहा है, किन्तु उन लोगों के लिए इसे अपवाद माना है (मनु० ८।२८३) जो बीमारी के कारण वृद्धता या गर्भधारण के कारण ऐसा करते हैं या बच्चे हैं, उन पर अर्थ-दण्ड नहीं लगता, केवल झिड़की ही उनके लिए पर्याप्त है (देखिए मत्स्यपुराण २२७।१७५-१७६) । कौटिल्य (३।३६) ने गाड़ियों के मार्ग पर धूलि फेंकने पर १/८ पण, मिट्टी से अवरोध उपस्थित करने पर १/४ पण तथा यही कार्य राजमार्ग पर करने पर दूना दण्ड लगाया है, और पूत स्थलों या जलस्थानों या मन्दिरों या राजप्रासादों के पास मल-मूत्र करने पर क्रम से २, ३ या ४ पणों का दण्ड निर्धारित किया है तथा मनु द्वारा लिखित लोगों को छूट दी है । कात्यायन (७५८-७५६) का कहना है कि तालाब, वाटिका और घाटों को जो गन्दी वस्तुओं से अपवित्र करता है उसे दण्डित होना पड़ता है और स्वच्छ करना पड़ता है । यही बात पवित्र स्थानों पर गन्दे कपड़े धोने पर भी कही गयी है। याज्ञवल्क्य (२।१५५) ने (दो या अधिक खेतों के) सीमा-व्यतिक्रम, अपने खेत की सीमा से आगे बढ़कर जोतने तथा अन्य को अपना खेत जोतने से मना करने वाले को क्रम से सामान्य, सर्वाधिक तथा मध्यम दण्ड की सजा कही है। और देखिए विष्णुधर्मसूत्र (५।१७२) एवं शंख-लिखित, जहाँ किसी खेत की सीमा के उल्लंघन पर १००८ पर्णों के अर्थ-दण्ड की व्यवस्था दी हुई है। और देखिए मनु (८।२६४ =मत्स्यपुराण २२७।३०) जहां किसी के खेत, वाटिका, घर आदि को असावधानी से छीनने पर २०० पणों का तथा जान-बूझकर छीनने पर ५०० पणों का अर्थ-दण्ड घोपित किया गया है। नारद (१४।१३-१४) एवं कात्यायन (७६०-७६१) का कथन है कि दो खेतों की सीमा पर उगे फलफूलों को न्यायाधीश द्वारा दोनों की सम्पत्ति घोषित किया जाना चाहिए, किन्तु यदि किसी के खेत में उगा पेड़ दूसरे के खेत में अपनी डालियां फैला ले तब भी वह उगाने वाले खेत के स्वामी का ही कहा जायगा, अर्थात् उसके फल-फूल दूसरे खेत वाले स्वामी को नहीं मिलेंगे। नारद (१४।१८) ने सेतु के दो प्रकार बतलाये हैं; खेय (वह जो अधिक जल निकालने के लिए खोदकर बनाया जाता है) तथा बन्ध्य (बांध, जो पानी रोकने के लिए निर्मित किया जाता है)। यदि सेतु-निर्माण से एक खेत को अपेक्षाकृत अधिक लाभ होता है तो उसे बनने देना चाहिए (याज्ञ० २।१५६ एवं नारद १४:१७) । ऐसा करने के पूर्व सेतु-निर्माता को दूसरे खेत (जहाँ पर वह सेतु बनाना चाहता है) के स्वामी या राजा से आज्ञा ले लेनी चाहिए, नहीं तो उससे उत्पन्न लाभ उसे नहीं प्राप्त हो सकता । इसी प्रकार का नियम दूसरों द्वारा गृहों या तालाबों की मरम्मत करने के विषय में भी दिया हुआ है (कात्यायन ७६२-७६३) । नारद (१४।२३-२५) का कथन है कि यदि कोई व्यक्ति बिना किसी के विरोध के ऐसी भूमि जोतता है जिसका स्वामी उसे स्वयं नही संभाल सकता या मर गया है या लुप्त हो गया है, तो वह उसका भोग कर सकता है, किन्तु यदि पूर्व स्वामी या उसका पुत्र आ जाता है तो उसे लौटा देना पड़ता है । किन्तु ऐसा करते समय उसे, खेत के बनाने या बोने में जो कुछ व्यय हुआ रहता है वह मिल जाता है। यदि पूर्व स्वामी यह व्यय न दे सके तोनवीन स्वामी आठ वर्षों तक खेतका १/८ भाग पाता है और आठवें वर्ष के आरम्भ में उस खेत को लौटा देता है। याज्ञ० (२।१५८) एवं व्यास का कथन है कि यदि कोई मालगुजारी पर किसी के बंत को जोतनं के लिए लेता है और थोड़ा-बहुत जोतकर उसे बिना बोए छोड़ देता एवं किसी अन्य द्वारा भी उसे पूरा ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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