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धर्मशास्त्र का इतिहास
मनु (८।२६२), याज्ञ० (२।१५४), नारद ( १४।१२ ) एवं कात्यायन ( ७४६ ) का कथन है कि भूमियों कूपों, जलाशयों, कुंजों, वाटिकाओं, महलों, गृहों, कुटीरों (पर्णशालाओं), मन्दिरों एवं जल की निकासी के लिए नालियों की सीमाओं के विवादों को साक्षियों ( सामन्तों पड़ोसियों आदि) से तय कराना चाहिए ।
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नारद, बृहस्पति एवं कात्यायन ने जल-प्रणालियों एवं मलमूत्र विसर्जन-प्रणालियों (मोरियों) की सीमाओं के विषय में विस्तृत नियम दिये हैं ।
बृहस्पति ने व्यवस्था दी है कि ग्राम एवं गृह की स्थापना (बुनियाद ) के काल से चले आते हुए गृहों (द्वारों, वातायनों, अगवाड़ों, चहारदीवारियों आदि) के भोग एवं जल तथा आपणों ( हाटों) के भोग के विषय में किसी प्रकार का विरोध नहीं होना चाहिए। यदि इन बातों में नयी व्यवस्थाएँ होने लगें तो विरोध उपस्थित हो सकता है (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २३४ एवं व्यवहारप्रकाश पृ० २६३) । ११ बृहस्पति का यह भी कथन है कि प्राचीन वातायनों, जलनिकासों, घोरियों (ओरी को थामने के लिए बने लम्बे-लम्बे काठ या बाँस के डण्डे जो भीत में गड़े होते हैं, जिनका आकार घोड़ों की भाँति होता है, कहीं-कहीं ये पक्के मकानों में पत्थर के भी होते हैं), सड़कों के किनारे बने उच्चस्थल, घरों या कुटीरों के आँगन से वर्षा जल को निकालने वाली नालियों (मोरियों) को जो बहुत दिनों से ज्यों के त्यों चले आये हों नहीं हटाना चाहिए, भले ही उनसे पड़ोस के मकानों को कठिनाई होती हो । यही बात कात्यायन (७५२-७५३) ने भी कही है । पुनः इनका निर्माण नहीं होना चाहिए, क्योंकि इनसे अन्य गृहों को दिक्कत हो सकती है। किसी दूसरे के घर में अपनी खिड़की नहीं खोलनी चाहिए और न इसी प्रकार दूसरे के घर को बिगाड़ने या उसके स्वामी के विरोध कोई नाली बनानी चाहिए। किसी के घर की दीवार से लगभग दो हाथ हटकर ही घूरा ( जहाँ गलीच या गोबर, मल, मूत्र, कतवार आदि फेंकें जाते हैं और जिनसे खाद बनती है) बनाना चाहिए, इतना ही नहीं, घूरे को अपने घर से भी दूर रखना चाहिए ।
जिस स्थान या सड़क या मार्ग से मनुष्य एवं पशु इधर-उधर बिना किसी रुकावट के आ-जा सकें उसे संसरण १२ कहा जाता है । कात्यायन ( ७५५ ) ने इसे चतुष्पथ कहा है और उसे राजमार्ग कहा है जहाँ से लोग किसी निश्चित
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प्राप्त भूमि न विचालयेत् नान्यथा कुर्यात् पूर्वस्वामी नापच्छिन्द्यादित्यर्थः । एतदनुप्तशस्यतीरविषयम् । उप्ततीरविषये पुनः स एव -- क्षेत्रम् ० । तां सशस्यां भूमिम् । उप्त शस्य फललाभपर्यन्तमेतत् । तत्फललाभानन्तरं तु न पूर्वस्वामी तां भूमि लभेत इत्यवगन्तव्यम् । विवादरत्नाकर का मत भिन्न है-यत्र तु नदी क्षेत्रादिकं समुल्लङ्घ्य याति तत्र पूर्वग्रामस्यैव सा भूमिरिति ।
११. निवेशकालादारभ्य गृहवार्यापणादिकम् । येन यावद्यथा भुक्तं तस्य तप्न विचालयेत् ॥ वातायनं प्रणालीं च तथा निर्यू हवेदिका: (निर्व्यूह ? ) । चतुःशालस्यन्दनिकाः प्राङ निविष्टा न चालयेत् ॥ बृहस्पति ( अपरार्क पृ० ७६४; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २३५; व्यवहारप्रकाश पृ० ३६३) । ' एवं निवेशनकाले कल्पितं गवाक्षादिकं प्रातिवेश्यानिष्टकार्यपि न केनचिच्चालनीयमित्याह स एव ।' स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २३५ ) ; निर्व्यू हो द्वारनिर्गतकाष्ठविशेष इति कृत्यकल्पतरौ । निर्व्यू हो गृहकोण (गृहघोणा ? ) इति स्मृतिचन्द्रिका । वेदिका रथ्यादिप्रदेश संस्कृतोत्तरा भूमिः । व्यवहारप्रकाश ( पृ० ३६३) । ये शब्द मदनरत्न से लिये गये हैं ।
१२. यान्त्यायान्ति जना येन पशवश्चानिवारितः । तदुच्यते संसरणं न रोद्धव्यं तु केनचित् ॥ बृहस्पति (अपरार्क पृ० ७६५; स्मृतिवन्द्रिका २, पृ० २३५ ; सर्वे जनाः सदा येन प्रयान्ति स चतुष्पथः । अनिषिद्धा यथाकालं राजमार्गः स उच्यते ॥ कात्यायन (७५५, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २३५; विवादरत्नाकर पृ० २२१ ) ।
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