________________
८१४
धर्मशास्त्र का इतिहास
चाहिए बृहस्पति का कथन है कि गुरुजनों को चाहिए कि वे सीमाओं के संकेतों, लक्षणों ( प्रकाश एवं गुप्त ) आदि को अन्य बच्चों को दिखला दें और वे बच्चे भी आगे चलकर अपनी संततियों को दिखला दें। इस प्रकार सीमा-ज्ञान की परम्परा बँधती जायगी । और देखिये मनु ( ८।२५० - २५३, २५५ ), याज्ञ० (२/१५१), नारद ( १४१४-६ ) | वसिष्ठ (१६।१३), कौटिल्य ( ३६ ), मनु ( ८२५८, २६० ) । नारद ( १४/२ - ३ ) के मत से साक्षियों के अभाव में सामन्तों ( पड़ोसियों ), वृद्धों, गोपालों, खेतिहरों (जो विवादी खेत के पास भूमि जोतते हैं), शिकारियों, व्याधों, मछली मारने वालों, मदारियों एव जंगल में रहने वालों द्वारा राजा के समक्ष सीमा विवाद का निपटारा होना चाहिए।" मिताक्षरा ( याज्ञ० २/१५३) ने कात्यायन ( ७४३-७४५, ७५३ ) को उद्धृत किया --साक्षी क्रमशः उच्चता अथवा वरिष्ठता में यों विभाजित हैं; सामन्त, मौल, वृद्ध एवं उद्धृत । मिताक्षरा में आया है कि पड़ोसियों को साक्षी के रूप में कमल-दलों के स्तर के रूप में स्थापित करना चाहिए, यथा-- संसक्तक ( बहुत पास वाले) को वरीयता देनी चाहिए, यदि इनमें दोष हो तो उनके बाद वालों को जो बहुत दूर के न हों वरीयता देनी चाहिए और इनके बाद अन्य दूर के दलों से जाँच करानी चाहिए । शंख लिखित एवं व्यास ( १६ १३ - १५ ) ने व्यवस्था दी है कि सीमाविवाद में साक्षियों में भेद पड़ने पर पड़ोसियों पर ही निर्णय निर्भर रहता है और उसके बाद पुर, ग्राम एवं संघों के वृद्ध जनों पर । ६ याज्ञ० (२।१५२ ) एवं मनु ( ८ २५८ ) के मत से सोमानिर्धारण के लिए भरसक उसी गाँव के चार, आठया दस ( सम संख्यक) पड़ोसी होने चाहिए। बृहस्पति का कथन है कि साक्षियों को भूमि के आगम ( स्वत्वप्राप्ति) का मूल भूमि परिमाण, भोगकाल ( कब से उस पर कब्जा या स्वामित्व रहा है ), भोगकर्ता के नाम तथा उस भूमि का भूगोल आदि लक्षण ज्ञात रहने चाहिए। नारद ( १४ ६ ) के कथन से सीमाविवाद जैसे महत्वपूर्ण एवं कठिन विवाद में एक साक्षी पर्याप्त नहीं है, कई साक्षियों का सहारा लेना चाहिए । किन्तु इस सामान्य
४. विवादरत्नाकर ( पृ०२११) ने 'सुकृतैः शापिताः' का यह अर्थ लिखा है-धर्मा अस्माकं क्षीणा भवन्ति यदि मिथ्या वदामः इति वादिताः । अर्थशास्त्र ( ३६ ) में आया है -- सीमाविवाद ग्रामयोरुभयोः सामन्ताः पंचग्रामी दशग्रामी वा सेतुभिः स्थावरः कृत्रिमर्वा कुर्यात् । कर्षकगोपालवृद्धकाः पूर्वं भुक्तिका वा अबाह्याः सेतूनामभिज्ञा बहव एक वां निर्दिश्य सीमासेतून् विपरीतवेषाः सोमानं नयेय: । क्षेत्रविवाद सामन्तग्रामवृद्धाः कुर्युः ।
५. समन्ताद् भवाः सामन्ताः चतसृषु दिक्ष्वनन्तरग्रामादयस्ते च प्रतिसोमं व्यवस्थिताः; ग्रामो ग्रामस्य सामन्तः क्षेत्र क्षेत्रस्य कीर्तितम् । गृहं गृहस्य निर्दिष्टं समन्तात् परिरभ्य हि ॥ इति कात्यायनवचनात् । ग्रामादिशब्देन तत्स्थाः पुरुषा लक्ष्यन्ते । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१५१ ) ।
६. तेषामभावे सामन्तमौल वृद्धोद्धृतादयः । स्थावरे षट्कारेपि कार्या नात्र विचारणा । कात्यायन ( ७३७, मिताक्षरा - याज्ञ० २ १५२, विवादरत्नाकर पृ० २०६ ) ; गृहक्षेत्र विरोधे सामन्तप्रत्ययः । सामन्तविरोधे लेख्यप्रत्ययः । प्रत्यभिलेखविरोधे ग्रामनगरवृद्धश्रेणीप्रत्ययः । वसिष्ठ १६।१३-१५ गृहक्षेत्रयोविरोधे सामन्तप्रत्ययः । सामन्तविरोधे अभिलेख्यप्रत्ययः । अभिलेख्यविरोधे ग्रामनगरवृद्धश्रेणिप्रत्ययः । ग्रामनगरवृद्धश्रेणिविरोधे दशवर्षभुक्तमन्यत्र राजविप्रस्वात् । शंख लिखित ( विवादरत्नाकर पृ० २०८ ) । स्वार्थसिद्धौ प्रदुष्टेषु सामन्तेष्वर्थगौरवात् । तत्संसक्तैस्तु कर्तव्य उद्धारो नात्र संशयः । संसक्त सक्तदोष तु तत्संसक्ताः प्रकीर्तिताः । कर्तव्या न प्रदुष्टास्तु राज्ञा धर्मं विजानता ॥ कात्यायन ( मिताक्षरा, याज्ञ० २।१५२) ।
७. आगमं च प्रमाणं च भोगकाल च नाम च । भूभागलक्षणं चैव ये विदुस्तेऽत्र साक्षिणः ॥ बृहस्पति (मिताक्षरा - याज्ञ० २।१५२; पराशरमाधवीय ३, पृ० ३६२; व्यवहारप्रकाश पृ० ३५५ ) ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org