SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अध्याय २२ सीमाविवाद नारद (१४११)ने ऐसे झगड़ों को, जिनमें सेतु या बाँध, खेतों की सीमा, उर्वर एवं अनुवंर खेत के झगड़े सम्मि. लित हों, क्षेत्रजविवाद की संज्ञा दी है। नारद ने सम्भवतः मनु के सीमाविवाद शब्द को सभी प्रकार के खेत-सम्बन्धी झगड़ों के अर्थ में लिया है। कात्यायन (७३२) न भूमि-सम्बन्धी विवादों के कारणों के छ: प्रकार दिये हैं-अधिक भूमि माँगना, दूसरे को कम भूमि देने का अधिकार जताना, अंश (भाग) का अधिकार जताना, दूसरे के अंश या भाग को न मानना, न भोगी हुई भूमि पर भोग जताना तथा सीमा । इन सभी कारणों में 'सीमा' के झगड़े परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से आ जाते हैं, अत: इनको 'सीमाविवाद' शीर्षक के अन्तर्गत रखा जाना उपयुक्त ही है, सीमाविवाद का सम्बन्ध जनपद (जिला), ग्राम, खेत या गृह की सीमाओं से है। नारद के अनुसार सीमाएं पाँच प्रकार की होती हैं-ध्वजिनी (डण्डों के समान वृक्षों वाली), मत्स्यिनी (मछलियों वाली अर्थात् तालाबों तथा जलाशयों के घेरे वाली), नंधानी (गुप्त चिन्हों वाली यथा-भूसा, ईटों, हड्डियों आदि से पूर्ण मृद्भाण्डों वाली), भयवजिता (जो दलों द्वारा निर्णीत हो), राजशासननीता (राजा द्वारा निर्णीत) मनु (८२४६-२४७) ने लिखा है कि अश्वत्थों, सेमलों, शालों, ताड़ों, उदुम्बरों, बाँसों, झाड़ियों आदि से सीमाएं व्यक्त होती हैं । नदियों के प्रवाहों, जिनमें मछलियाँ, कछुए आदि होते हैं, तालाबों एवं जलाशयों से प्राकृतिक सीमाएँ बनती हैं (मनु ८।२४८) । मिट्टी के बरतनों में, भूसा, कोयला, ईंट, पत्थर, हड्डियाँ आदि रखकर, उन्हें भूमि में गाड़ दिया जाता है जिससे पानी से कटकर भूमि नदी-नालों के रूप में परिवर्तित न हो जाय । इन वस्तुओं से भूमि-सीमा भी बन जाती है और इसी से ऐसी सीमा को नधानी या उपच्छन्न (मनु ।२५०-२५१) कहा जाता है, क्योंकि ये वस्तुएँ पृथिवी में गड़ी रहती हैं और सीमा निर्धारण भी करती हैं । बृहस्पति का कथन है कि ग्राम-स्थापना के समय प्रकाश (सुस्पष्ट एवं लक्षित) एवं उपांशु या उपच्छन्न (गुप्त या छिपे हुए) लक्षणों से युक्त सीमाएँ निर्धारित होनी चाहिए और स्मृतिचन्द्रिका के अनुसार प्रस्तरों को पंक्तियों से सीमाएँ बनानी १. सेतुकेदारमर्यादाविकृष्टाकृष्टनिश्चये। क्षेत्राधिकारो यस्तु स्याद्विवादः क्षेत्रजस्तु सः ॥ नारद (१४:१)। विवादरत्नाकर (पृ० २०१) ने 'सेतुकेदार' को एक शब्द माना है, किन्तु व्यवहारप्रकाश (पृ० ३५३) ने 'केदार' एवं मर्यादा को अलग-अलग माना है। विकृष्टो लांगलप्रहतो देशः, अकृष्टस्तद्रहितः । व्यवहारप्रकाश (पृ० ३५३)। २. आधिक्यं न्यूनता चांशे अस्तिनास्तित्वमेव च । अभोगभुक्तिः सीमा च षड् भूवादस्य हेतवः॥ कात्यायन (७३२, मिताक्षरा, याज्ञ० २।१५०, विवादरत्नाकर पृ० २०१; अपराक पृ०७५६; व्यवहार प्रकाश पृ० ३५३) । ३. निवेशकाले कर्तव्यः सीमाबन्धविनिश्चयः । प्रकाशोपांशुचिह्वश्च लक्षितः संशयावहः॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २२७--प्रामाविप्रवेशकाले तत्सीमानियामकस्थूलगूडकः प्रकाशगुप्तलिंगोपेतः सीमासन्धौ स्थापनीय इति)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy