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धर्मशास्त्र का इतिहास छोड़ें जिसमें पशु आदि चर सकें। मनु (८।२३७) एवं याज्ञ० (२।१६७) ने व्यवस्था दी है कि गाँव, खर्वट एवं नगर के चारों ओर कम से १००, २०० एवं ४०० धनुओं के विस्तार में बिना जोती हुई भूमि चरागाह के लिए छोड़ दी जाय।२१ कात्यायन (६६६) ने लिखा है कि जंगल के पास की भूमि के स्वामी को खेतों को बाड़ से घेर देना चाहिए, अन्यथा हरिण आदि पशु एक बार सुस्वादु अन्न खाकर परच सकते है और तब खेतों की रक्षा कठिनाई से होगी।२२ गाँव या सड़क के पास की भूमि (जहाँ खेती हो) को इतनी ऊँची खाई या इतने ऊँचे बाड़ों से घेर देनी चाहिए कि ऊँट ऊपर से, घोड़े कूद कर, कुत्ते या सुअर छेदों से उसकी उपज को नष्ट न कर सकें (मनु० ८।२३८ = मत्स्यपुराण २२७।२५; नारद १४ । ४१)। यदि ऐसा नहीं किया जाय तो गोपाल (चरवाहा या गोरखिया) का कोई दोष नहीं समझा जाय (मनु ८। २३८= मत्स्यपुराण २२७१२६; याज्ञ० २।१६२ एवं नारद १४१४०) यदि बाड़ के रहते हुए पशु खेतों में प्रविष्ट होकर उसकी उपज नष्ट कर दें तो गोरखिये को दण्डित होना पड़ता है (आपस्तम्ब० २।२।२८।५; मनु बा२४० नारद १४१२८ एवं कात्यायन ६६४-६६५)। ऐसी स्थिति में पशुओं को मारकर खदेड़ा जा सकता है। और गोपाल (चरवाहे) को १०० पण दण्ड देना पड़ता है। विशेष अध्ययन के लिए देखिये याज्ञ० (२।१५६-१६१) मनु (८।२४१), नारद (१४।२८-२६), कात्यायन (६६७) । गौतम (१२।१६-२२) एवं कौटिल्य (३।१०) ने भी इस पर व्यवस्था दी है। जो लोग जान-बूझकर खेतों को चरा लेते थे उन्हें चोरों का दण्ड मिलता था (नारद १४।३४)।
प्राचीन भारत में कुछ पशुओं के प्रति कुछ परिस्थितियों में बड़ी सुकुमार भावनाएँ थीं। नारद (१४॥३०), याज्ञ० (२।१६३), मनु (८१२४२), कौटिल्य (३।१०) उशना आदि ने व्यवस्था दी है कि बच्चा देने के दस दिनों के भीतर की गायों, बैलों,अश्वों, हाथियों, देवों एवं पूर्वपुरुषों के सम्मान में छोड़ गये पशुओं खूटा से तुड़ाये हुए घरेलू पशुओं अथवा अरक्षित तथाघायल पशुओंको खेतसे हाँक देना चाहिए और उनके स्वामियोंको दण्डित नहीं करनाचाहिए। उशना का कथन है कि अश्वों एवं हाथियों के प्रति मधुर भाव इसलिए रखना चाहिए कि वे प्रजापाल कहे जाते हैं । २३ अपरार्क (१०७७१) का कथन है कि यह छूट केवल राजाओं के घोड़ों एवं हाथियों के लिए है। उशना के अनुसार उत्सवों एवं श्राद्धों के समय में हानि करने वाली गायों के स्वामियों को दण्डित नहीं करना चाहिए। उन्होंने पुनः कहा है कि जो लोग खेती नष्ट करने वाली गायों के स्वामियों से हरजाना मांगते हैं उनके पितरों एवं देवों को उनके द्वारा दी गयी आहुतियां नहीं प्राप्त होतीं। २४पराशरमाधवीय (३.१०३८५) की व्याख्या से प्रकट होता है कि यहां पर ऐसे चरे गये खेतों की ओर संकेत है जो ग्राम के पास होते हैं और मदनरत्न ने श्राद्ध के समय चरे गये खेतों की ओर संकेत किया है। बृहस्पति, याज्ञ० (२।१६१) एवं नारद (१४।३८) ने ऐसी स्थिति में पड़ोसियों द्वारा निर्णीत बात को मान्य ठहराया है।
२१. एक धनु बराबर होता है चार हाथ या ६ फुटों के।
२२. अजातेष्वेव सस्येषु कुर्यादावरणं महत् । दुःखे नेह निवार्यन्ते लब्धस्वादुरसा मृगाः॥ कात्यायन (६६६, अपरार्क पृ० ७७०; स्मृतिचन्द्रिका, २ पृ० २०६) ।
२३. ग्रामदेववृषा वा अनिर्दशाहा वा धेनुरुक्षाणो गोवृषाश्चादण्ड्याः । अर्थशास्त्र (३।१०)। अदण्ड्या हस्तिनो ह्यश्वाः प्रजापाला हि ते स्मृताः। अदण्ड्यौ काणकुब्जौ च ये शश्वत्कृतलक्षणाः ॥ अदण्ड्यागन्तुको गौश्च सूतिका वाभिसारिणी । अदण्ड्याश्चोत्सवे गावः श्राद्धकाले तथैव च ॥ उशना (मिताक्षरा, याज्ञ० २११६३; विवादरत्नाकर १० २४०)। मिलाइये नारद (१४।३१-३२) । मनु (८।२४२) ने 'देवपशून' को चर्चा की है जिसे स्मृतिचन्द्रिका (२, ५० २१२) ने यों समझाया है-देपशवो हि देवताप्रतिमादीनां क्षीरस्नानाद्ययं तदुद्देशेन दत्ताः।
२४. गोभिविनाशितं धान्य यो नरः प्रतियाचते। पितरस्तस्य नाश्नन्ति नाश्नन्ति त्रिदिवौकसः॥ उशना (अपरार्क १० ७७०; विवादरत्नाकर पृ० २३२) ।
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