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भूमि का क्रय-विक्रय ; पशुचारकों के विवाद
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विवाद आदि अन्य झगड़े नहीं उत्पन्न होंगे। बिना इनके भी भ-क्रय उचित एवं पूर्ण माना जाता है। जल एवं सोना इसलिए दिये जाते हैं कि क्रय को दान की धार्मिकता भी प्राप्त हो जाय।
स्वामि-पाल विवाद
स्वामि-पालविवाद का मतलब है पशुओं के स्वामी एवं उनके रक्षक नौकरों के बीच के झगड़े । कृषिप्रधान देश भारत के अंदर आदि काल में स्वामि-पालविवाद बहुधा हुआ करता था । नारद ने इसको संभवतः वेतनस्यानपाकर्म नामक शीर्षक के अन्तर्गत रखा है। याज्ञ० (२।१६४) एवं नारद (६।११) ने व्यवस्था दी है कि पशुपाल को प्रातः काल प्राप्त पशुओं को चराकर तथा उन्हें पानी पिलाकर सायंकाल लौटा देना चाहिए। मनु (८।२३०) के मत से पशुओं की सुरक्षा का उत्तरदायित्व दिन में पशुपाल पर तथा रानि में स्वामी पर रहता है। (यदि पशु रात्रि में स्वामी के यहाँ बाँधे जाते हों)। यदि वेतन पूर्व से निश्चित न हो तो पशुपाल सौ गायों पर प्रति आठवें दिन सब दूध तथा प्रति वर्ष एक बछड़ा (दो वर्ष का) पाता है और दो सौ गायों पर एक दुधारू गाय (बछड़े के साथ) पाता है (नारद ६।१० एवं बृहस्पति) । मनु (८।२३१) ने कुछ और ही कहा है--यदि वेतन न तय हो तो पशुपाल दस गायों में एक सर्वोत्तम गाय का दूधस्वामी की आज्ञा से दुह सकता है । पशुपाल को पशुओं की सुरक्षा का ध्यान रखनापड़ता था और उन्हें आपत्तियों एवं दुर्घटनाओं से बचाने के लिए अपनी ओर से सब कुछ करना पड़ता था और असमर्थ होने पर स्वामी को तुरंत सूचना देनी पड़ती थी, यथा--कीड़ों (सर्प आदि), चोरों, व्याघ्रों, गड्ढों, कन्दराओं से भली भांति बचाना होता था (नारद ६।१२, बृहस्पति)। यदि वह ऐसा नहीं करता था तो उसे नष्ट हुए पशु का हरजाना तथा अर्थ-दण्ड (राजा द्वारा व्यवस्थित) देना पड़ता था (नारद ६१३) । और देखिये मनु (८।२३२ एवं २३५), याज्ञ० (२।१६४-१६५), विष्णु (५।१३७-१३८), नारद (६।१४-१५)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।२८।६) ने भी इसी प्रकार की दण्ड-व्यवस्था दी है। उपर्युक्त नियमों के कुछ अपवाद भी हैं, यदि चोरों का आक्रमण हो और पशु उठा लिये जायें या भेड़ियों के आक्रमण से कुछ पशु मृत हो जायें और पशुपाल समय एवं स्थान के अनुसार सूचना दे दे तो उसे दण्डित नहीं होना पड़ता (मनु ८।२३३-२३६, नारद ६।१६ एवं व्यास)। कुछ स्थितियों में पशुपाल को विपत्ति-ग्रस्त दशाओं के चिह्न प्रदर्शित करने पड़ते थे, यथा--उसे मृत पशु के बाल, सींग,अस्थि-पंजर, कान, पूंछ आदि लाकर स्वामी को दिखाने पड़ते थे, तभी उसे दण्ड से छुटकारा मिलना संभव था (मनु ८।२३४, नारद ६।१७) व्यास का कथन है कि वेतन ले लेने पर यदि पशुपाल पशुओं को निर्जन वन में अरक्षित छोड़ कर ग्राम में घूमता पाया जाय तो उसे राजा द्वारा दण्डित होना पड़ता है।३०
याज्ञ० (२।१६६) के मत से ग्रामवासियों एव राजा को चाहिए कि वे अपनी इच्छा के अनुकूल चरागाह
१८. कृमिचोरव्याघ्रभयाद्दरीश्वभ्राच्च पालयेत् । व्यायच्छेच्छक्तितः क्रोशेत्स्वामिने वा निवेदयेत् ।। बृहस्पति (विवादरत्नाकर पृ० १७२, व्यवहारप्रकाश पृ० ३४७; स्मृतिचान्द्रिका २, पृ० २०८) ।
१६. दिवा पशूनां वृकाद्युपघाते पाले त्वनायति पालदोषः। विनष्टपशुमूल्यं च स्वामिने दद्यात् । विष्णुधर्मसूत्र (५।१३७-१३८); अवरुध्य पशून मारणे नाशने वा स्वामिभ्योऽवसृजेत् । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।२।२८।६)।
२०. पालग्राहे ग्रामघाते तथा राष्ट्रस्य विभ्रमे । यत्प्रणष्टं हृतं वा स्यान्न पालस्तत्र किल्विषी॥ व्यास (स्मृति चन्द्रिका २, पृ० २०७,विवादरत्नाकर पृ०१७२ एवं अपरार्कपृ० ७७२); मृतेषु चविशुद्धिः स्यात् बालशृगादिदर्शनात् । नारद (१७); गृहीतमूल्यो गोपालस्तांस्त्यक्त्वा निर्जने वने । ग्रामचारी नपैर्वाध्यः शलाको च वनेचरः ॥ व्यास (व्यवहारप्रकाश प० ३४७), यहाँ 'शलाको' का तात्पर्य है नाई (नापित)।
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