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________________ ८१० धर्मशास्त्र का इतिहास ३५०) ने बताया है कि ऐसी भूमि-का आधा या एक-चौथाई मूल्य देकर उसे कोई क्रय कर सकता है, किन्तु वास्तविक स्वामी पूरा मूल्य तीन पीढ़ियों तक देकर उस भूमि को पुन: प्राप्त कर सकता है। इससे स्पष्ट होता है कि भूमि पर प्रजा का अधिकार था और राजा को केवल कर प्राप्त होता था। इस विषय में हमने इस ग्रंथ के द्वितीय भाग में विस्तार के साथ पढ़ लिया है । पूर्वमीमांसा, व्यवहारमयूख तथा कात्यायन के कथनों से प्रकट होता है कि सामान्य रूप से भूमि पर राज्य का ही अधिकार था, किन्तु जहां व्यक्ति या व्यक्तियों के दल भूमि को जोतते थे और बहुत काल से उसका उपभोग करते थे वहां राज्य का स्वामित्व सीमित या नियत था और वह केवल कर-प्राप्ति या अन्न-ग्रहण तक मर्यादित था एवं कर्षण करने वालों को ही भमि का स्वामित्व प्राप्त था: राज्य को कर देना पड़ता था किन्त कर न देने पर उस भूमि को राज्य बेच सकता था। व्यवहारनिर्णय ने बृहस्पति आदि का हवाला देकर लिखा है कि शूद्र, पतित, चाण्डाल, एवं आततायी को ब्राह्मण की भूमि खरीदने का अधिकार नहीं था, वे न तो उसे प्राप्त कर सकते थे और न पारिश्रमिक (वेतन) के रूप में ग्रहण कर सकते थे । व्यवहारनिर्णय ने पुनः व्यास, बृहस्पति एवं भारद्वाज का उद्धरण देकर कहा है कि जब भूमि बेंच दी जाती थी तो भाइयों, सपिण्डों, समानोदकों, सगोत्रों, पड़ोसियों, ऋणदाताओं एवं ग्रामवासियों को कम से उसका पूर्व क्रयाधिकार पाठक का) प्राप्त था, अर्थात् वे उसे प्राप्त कर सकते थे।१५ अति प्राचीन काल में अचाफ म्पत्ति का दान अच्छा नहीं माना जाता था, किन्तु उपनिषदों के काल में भी ऐसा होता पाया गया है। किन्तु पिरतिभूत्मक एवं संयुक्त कुटुम्ब की स्थिति के कारण भूमि-विक्रय बहुत ही कम सम्भव था। मिताक्षरा (याज्ञ० २ता है, ने स्थावर सम्पत्ति के विक्रय को वर्जित माना है,१६ किन्तु बहुत से ताम्रपत्रों में भूमि-विक्रय का उल्लेख मिलता अब्दखिये एपिरॅफिया इण्डिका २०, पृ० ५६; १७, पृ० ३४५; १५, पृ० ११३; इण्डियन ऐण्टिक्वेरी ३६, पृ० १६३; एपिप्रैफिया इण्डिका १४,७४---जहां पर क्रम से पहाड़पुर, दामोदरपुर, फरीदपुर आदि के अभिलेखों में भूमि-दान का वर्णन है) । पाँचवीं एवं छठी शताब्दियों के अभिलेखों से प्रकट होता है कि भूमि पर व्यक्तियों या संयुक्त परिवारों या ग्राम-संघों या राजा का स्वामित्व था और उसे बेचने की एक विशिष्ट विधि थी। कयकर्ता पहले जनपद के राजपुरुषों के यहां पहुंचता था और पुस्तपालों (जो भूमि का लेखा-जोखा रखते थे) एवं ग्राम-मुख्यों से पूछ-ताछ करता था जो क्रय की भूमि पर चिह्न लगा देते थे। ऐसा लगता है कि स्मृतियों ने दान के रूप में ही क्रय को बांध रखा है, क्योंकि उन दिनों क्रय की अपेक्षा दान ही अति प्रचलित था। मिताक्षरा (याज्ञ० २।११४) ने एक स्मृति का हवाला देकर कहा है कि ग्रामवासियों, सजातियों(अपने सम्बन्धियों), पड़ोसियों एवं दायादों की सम्मति से ही सोना एवं जल के अर्पण के साथ भूमि दी जाती थी। मिताक्षरा का कथन है कि ये बातें बहुत आवश्यक नहीं हैं, केवल सहूलियत एवं सुरक्षा की दृष्टि से ही ये दे दी गयी हैं, क्योंकि ग्रामवासियों आदि की स्वीकृति से आगे के सीमा १५. व्यासः-ज्ञातिसामन्तधनिकाः क्रमेण क्रयहेतवः। तत्रासनतराः पूर्व सपिण्डाश्च क्रये मताः। बृहस्पति । सोदराश्च सपिण्डाश्च सोदकाश्च सगोत्रिणः । सामन्ता धनिका ग्राम्याः सप्तैते भूक्रये मताः ।। व्यवहारनिर्णय (१० ३५५-५६)। १६. स्थावरे विक्रयो नास्ति कुर्यादाधिमनुज्ञया । मिताक्षरा (याज्ञ० २११४) द्वारा उद्धृत । १७. यदपि--स्वग्रामज्ञातिसामन्तदायादानुमतेन च। हिरण्योदकदानेन षड्भिर्गच्छति मेदिनी ॥ इति तत्रापि प्रामानुमतिः 'प्रतिग्रहः प्रकाशः स्यात् स्थावराय (स्थावरस्य ? ) विशेषतः 'इति स्मरणाद् व्यवहारप्रकाशनार्थ' मेवापेक्ष्यते न पुन मानुमत्या विना व्यवहारासिद्धिः ।.."विक्रयेपि कर्तव्ये सहिरण्यमुदकं दत्त्वा दानरूपेण स्थावरविक्रय कर्यादित्यर्थः । मिताक्षरा (याज्ञ० २।११४ एवं २।१७६) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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