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सावधिक क्रय-विक्रय
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२३८) के मत से अवक्रय वह है जिसमें एक अमानतदार अपनी अमानत की वस्तु किसी दूसरे को किराये पर दे देता है। पाणिनि ( ४/४/५० ) ने अवक्रय का प्रयोग दूसरे अर्थ में किया है; किसी बाजार आदि से राजा द्वारा लिया जानेवाला धन । गौतम (१२।३६) के 'अवक्रीत' शब्द को हरदत्त ने यों समझाया है - 'जो खरीदा गया हो, किन्तु मूल्य न दिया गया हो या केवल कुछ अंश ही दिया गया हो ।' सम्भवतः कात्यायन ने इसी अर्थ की ओर संकेत किया है । सुमन्तु (सरस्वती - विलास, पृ० ३२१ ) ने अवक्रय को यों समझाया है - 'यदि क्रय के उपरान्त केवल आधा मूल्य दिया गया हो तो अवधि के भीतर न देने से अवक्रय रद्द हो जाता है ।' कात्यायन ( ७१२ ) के मत से यदि अवधि निश्चित न हो तो मांगने पर बिक्री के न दिये हुए धन पर चक्रवृद्धि ब्याज लग जाता है । किन्तु निश्चित अवधि पर समय के भीतर केवल शेष धन दिया जाता है । बृहस्पति के अनुसार बिक्री में कूप, वृक्ष, अन्न, फल, जलाशय आदि लिखित होने चाहिए, अन्यथा वस्तुएं विक्रेता की हो जायँगी । हारीत के अनुसार ये नियम आदान-प्रदान (विनिमय) के विषय में भी लागू होने चाहिए । १३ राजतरंगिणी ( ६।४१ ) में आया है कि जब अधिकृत लिपिक ने १००० दीनार घूस लेकर गृह के क्रय- लेख में कूप भी सम्मिलित कर दिया तो उसे राजा द्वारा देश- निष्कासन का दण्ड मिला और उसकी सम्पत्ति छीनकर वंचित दल को दे दी गयी ।
पश१.
व्यवहारनिर्णय ने बृहस्पति एवं व्यास के उद्धरण देते हुए बिक्री, ध्यानंद, आदान-प्रदान (विक्रय, क्रय, विनिमय) आदि के विषय में सुन्दर विवेचन उपस्थित किया है--सोना जैसी वार अमूल्य के रूप में ली या दी जाती हैं और भूमि, गृह जैसी वस्तुएँ पण्य ( क्रय-विक्रय के योग्य) कही जाती हैं । ऋय से भलत्पर्य है किसी वस्तु की उसके मूल्य ( दिये गये अथवा देने के लिए केवल प्रतिश्रुत होने पर) देने के पूर्व की स्वीविक्रय का तात्पर्य है किसी मूल्य की पय देने के पूर्व की स्वीकृति । परिवृत्ति या परिवर्तना ( अदल-बदल ) का तात्पर्य है एक ही प्रकार ( सजातीय) की वस्तुओं के अदले-बदले की स्वीकृति । जब दो वस्तुओं के परिवर्तन के मूल्य में अन्तर हो तो उसे अवक्रय कहा जाता है । अब दो भिन्न प्रकार की (विजातीय) वस्तुओं का ( मूल्य समान होने पर ) परिवर्तन हो तो उसे विनिमय कहा जाता है । १४
कर न देने पर राजा की आज्ञा से भूमि की बिक्री सम्भव है । प्रजापति का उद्धरण देकर व्यवहारनिर्णय ( पृ०
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१३. विक्रयेषु च सर्वेषु पवृक्षादि लेखयेत् । जलमार्गादि यत्किञ्चिदन्यच्चैव बृहस्पतिः ॥ क्षेत्राद्युपेतं परिपक्व - सस्यं वृक्षं फलं वाप्युपभोगयोग्यम् । कूपं तटाकं गृहमुन्नत च क्रीतेपि विक्रेतुरिदं वदन्ति । बृहस्पति ( व्यवहारनिर्णय पृ० ३४६; सरस्वतीविलास पृ० ३२६ ) । मत्तमूढानभिज्ञातभीतविनिमयः कृतः । यच्चानुचितमूल्यं स्यात्सर्वं तद् विनिवर्तते || हारीत ( सरस्वतीविलास पृ० ३२६) ।
१४. स (बृहस्पतिः ) एवाह - - आत्मीयस्य विजातीयं द्रव्यमादाय चान्यतः । ऋयोत्थस्य (ऋयोर्थस्य ? ) परित्यागः साम्ये तु परिवर्तना । इति । व्यास । आत्मीयस्य विजातीयं द्रव्यमादाय चान्यतः । ऋयो मूल्यस्य संत्यागः स्वत्वहेतुः परस्परम् ॥ परिवृत्तिः सजातीयद्रव्ये विनिमयः स्मृतः । वैषम्ये विक्रयः प्रोक्तो मिश्रे विनिमयः स्मृतः ॥ इति । स्वत्वहेतुफलजनका एते क्रयविक्रयपरिवर्तनविनिमया इति । तत्र लोके जिहासितं सुवर्णादि मूल्यमुच्यते । उपादित्सितं क्षेत्रगृहादि पण्यमित्युच्यते । तत्र मूल्यत्यागपूर्वकपण्यस्वीकारः क्रयः । पण्यत्यागपूर्वको मूल्ये स्वत्वजनको मूल्यस्वीकारो विक्रयः । सजातीयत्यागपूर्वकः सजातीयस्य स्वीकारः परिवर्तना । वैषम्ये सति परिवर्तनैवावक्रयशब्देनोच्यते । विजातीयसजातीयमिश्रपरिवर्तनायां विजातीयाधिक्येऽवक्रयो भवति, सजातीयाधिक्ये परिवर्तना भवति । सजातीयविजातीययोः साम्ये विनिमयो भवति । व्यवहारनिर्णय, पृ० ३४७-३४८ । क्रय की यह परिभाषा बिल्कुल आधुनिक-सी लगती है ।
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