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धर्मशास्त्र का इतिहास
लौटायी नहीं जा सकती। व्यास का कथन है कि चर्म, काष्ठ, ईंटें, सूत, अन्न, आसव, रस, सोना, कम मूल्य की धातुएँ (रांगा आदि) एवं अन्य सामान जब अति परीक्षण के उपरान्त क्रीत कर लिये जाते हैं तो आगे चलकर उनमें दोष रहने पर भी वे लौटाये नहीं जा सकते। नारद के उपर्युक्त ( १२१५-६) वचन इस नियम के अपवाद हैं। नारद (१२।७) का कहना है कि यदि कोई सदोष वस्तु जान-बूझकर निरीक्षण के उपरान्त खरीदी जाय तो वह लौटायी नहीं जा सकती। यदि क्रीत वस्तु दुकान से न उठायी जाय तो विक्रेता उसे पुनः बेच सकता है और यदि क्रीत वस्तु देवसंयोग या राजा के कारण नष्ट हो जाय तो क्रेता को हानि उठानी पड़ती है (याज्ञ० २।२५५ एवं नारद ११६) । कात्यायन (६६२) के अनुसार यदि कोई वस्तु मत्त, उन्मत्त, अस्वतन्त्र, मुग्ध लोगों से खरीदी जाय तो उसे लौटाना पड़ता है और वह विक्रेता की ही मानी जाती है। उचित एवं अनुचित मूल्य के विषय में कात्यायन (७०५-७०६) ने एक विचिन्न नियम दिया है जो एकन्न हुए पड़ोसियों द्वारा निश्चित एवं निर्णीत हो (भूमि एवं उसका मूल्य ) और जो पापभीरु लोगों द्वारा निर्णीत भूमि, वाटिका, घर, पक्षी एवं चौपाये का मूल्य हो वह उचित मूल्य कहलाता है, जो मूल्य उसके आठवें भाग के बराबर कम या अधिक हो वह अनुचित कहलाता है । जो वस्तु अनुचित मूल्य पर बेची जाय वह सौ वर्षों के उपरान्त भी लौटायी या लौटा ली जा सकती है। कात्यायन (७०४) का कथन है कि यदि भूमि का स्वामी कर-प्रतिभू (कर देने लिए जामिन) के साथ भाग जाता है तो न्यायाधीश कर-प्राप्ति के लिए भूमि को बिक्री पर चढ़ा सकता है, किन्तु यह बिक्रो दस वर्षों के भीतर रद्द की जा सकती है और तीन पीढ़ियों तक मध्यस्थावलम्बन नियम द्वारा आदान-प्रदान किया जा सकता है । भारद्वाज का कथन है कि यदि करदाता एवं प्रतिभू द्वारा कर न दिया जाय तो राजा उस भूमि से या उसकी बिक्री से कर वसूल कर सकता है।१०
क्तलाम--यह वह बिक्री है जो समय (करार) युक्त या सोपाधिक कही जाती है। जब कोई व्यक्ति किसी भूमि को मूल्य का केवल एक अंश देकर उधार लेता है और प्रतिज्ञा करता है कि बाकी मूल्य किसी निश्चित तिथि को लौटा देगा । वह आगे चलकर यदि ऐसा नहीं कर पाता, तब उसका उस भूमि पर स्वामित्व समाप्त हो जाता है।११ कात्यायन (७११) के मत से उक्तलाम के प्रकार की बिक्री तभी नियमानुकूल है जब कि भूमि के उचित मूल्य का आधा दिया जाय और दस वर्षों का समय किया गया हो।
अवक्रय--तीन पीढ़ियों के भोग के उपरान्त अवक्रय नियमानुकूल हो जाता है और परस्पर समझौते के अनुसार किया गया रुचिक्रय तुरन्त नियमबद्ध हो जाता है। १२अवक्रय शब्द कई प्रकार से समझाया गया है। मिताक्षरा (याज्ञ०।
६. चर्मकाष्ठेष्टकासूत्रधान्यासवरसस्य तु । वसुकुप्यहिरण्यानां सद्य एव परीक्षणम् ॥ व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २२०; विवादरत्नाकर पृ० १६८; व्यवहारप्रकाश पृ० ३३६)।।
१०. पलायिते तु करदे करप्रतिभुवा सह । करार्थ करदक्षेत्रं विक्रीणीयुः सभासदः ॥ सन्धिश्चपरिवृत्तिश्च विषमा वा त्रिभोगतः। आजयापि क्रयश्चापि दशाब्दं विनिवर्तयेत् ॥ कात्यायन एवं वृद्ध कात्यायन (सरस्वतीविलास पृ० ३२४, व्यवहारनिर्णय पृ० ३४८); आज्ञाधिस्तत्क्रयश्चैव करे दण्डो विधीयते । उभावन्यत्र न स्यातामिति धर्मविदो विदुः॥ भारद्वाज (सरस्वतीविलास, पृ० ३२४) ।
११. किञ्चिच्च द्रव्यमादाय काले दास्यामि ते क्वचित् । नो चेन्मूलमिदं त्यक्तं केदारस्यति यः क्रयः । स उक्तलाम इत्युक्त उक्तकालेऽप्यनर्पणात् ।। भारद्वाज (व्यवहारनिर्णय पृ० ३५१; सरस्वतीविलास पृ० ३२४)।
१२. अर्धाधिके क्रयः सिध्यदुक्तलाभो दशाब्दिकः । अवक्रयस्त्रिभोगेन सद्य एवरुचिक्रयः॥ कात्यायन (७११, व्यवहारनिर्णय पृ० ३४६ सरस्वसीविलास पृ० ३२६) ।
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