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खरीद-बिक्री पर आनाकानी
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यदि बिक्री की हुई वस्तु क्रेता माँगे और विक्रेता न दे तथा वह नष्ट हो जाय, अग्नि में जल जाय, चोरी चली जाय तो विक्रेता को ही हानि उठानी पड़ती है (नारद १११६, विष्णु ५।१२६, याज्ञ० २।२५६)। ये नियम तभी लागू होते हैं जब कि विक्रेता को बेचने का पश्चात्ताप न हो, किन्तु यदि पश्चात्ताप हो तो मनु (८१२२२) के नियम से दस दिनों के भीतर वह बेची हुई वस्तु लौटा ले सकता है। यही बात कात्यायन (६८४) में भी पाई जाती है। दस दिनों के उपरान्त क्रेता एवं विक्रेता क्रम से लौटा नहीं सकता एवं माँग नहीं सकता, ऐसा करने पर उन्हें ६०० पण अर्थ-दण्ड के रूप में देने पड़ेंगे। मनु ने इन नियमों को सभी प्रकार के लेन-देन तक विस्तारित किया है (८।२२८) । किन्तु कात्यायन (६८५) ने दस दिनों की छूट केवल भूमि के विक्रय एवं क्रय के विषय में दी है; सपिण्डों में इस प्रकार के क्रय-विक्रय के लिए १२ दिनों की छूट है, किन्तु अन्य वस्तुओं के क्रय-विक्रय में अवधि छोटी होती है । याज्ञ० (२। २५७), नारद (११।७-८) एवं बृहस्पति के मत से यदि कोई विक्रेता मूल्य लेकर किसी को कुछ बेच देता है या किसी सदोष वस्तु को दोषरहित कहकर बेच देता है तो उसे दूना मूल्य देकर वस्तु पुन: ले लेनी पड़ती है और मूल्य के बराबर राजा को अर्थ-दण्ड देना पड़ता है। यह नियम तभी लागू होता है जब कि मूल्य ले लिया गया हो, किन्तु यदि अभी समझौता माव हुआ है, मूल्य नहीं दिया गया है तो क्रेता एवं विक्रेता दोषमुक्त माने जायँगे, अन्यथा नहीं (नारद ११॥ १०) । यदि बिक्री के पूर्व क्रेता कुछ धन अग्रिम (सत्यकार रूप में, बयाना) दिये रहता है और विक्रेता के दोष से सामान बिक जाता है, तो उसे क्रेता को सत्यंकार धन का दूना लौटाना पड़ता है, किन्तु यदि क्रेता उस सामान को आगे चलकर नहीं खरीदता है तो वह सामान तथा सत्यंकार (बयाना) दोनों खो बैठता है। नारद (१२।१) का कथन है कि यदि क्रेता मूल्य दे देने से उपरान्त क्रय का पश्चात्ताप करता है तो इसे 'क्रय का निरसन' शीर्षक कहा जाता है। नारद (१२।२)ने व्यवस्था दी है कि उसी दिन उसी रूप में क्रीत वस्तु लौटायी जा सकती है,किन्तु यदि दूसरे या तीसरे दिन लौटायी जाय तो क्रम से मल्य का तीसवां या पचासवां भाग कट जाता है, और तीसरे दिन के उपरान्त तो द्रव्य (वस्तु) लौटाया ही नहीं जा सकता (नारद १२।३) । किन्तु याज्ञ० (२।१७७) एवं नारद (१२।५-६) ने द्रव्य-परीक्षण के लिए निम्नलिखित अवधियाँ दी हैं--लोहे (एवं वस्त्र), दुधारू पशु, भारवाही पशु, रत्न (बहुमूल्य प्रस्तर, मोती एवं मूंगा), सभी प्रकार के अन्न, दास एवं दासी के लिए कम से १, ३, ५, ७, १० दिन, आधा मास एवं एक मास। ये उल्लेख मन (८।२२२) द्वारा प्रतिपादित सामान्य नियम के अपवाद हैं। कौटिल्य (३।१५) ने व्यापारियों, कर्षकों, चरवाहों एवं वर्णसंकरों तथा उच्चवर्णों को वस्तु लौटाने के लिए क्रम से एक, तीन,पाँच,एवं सात रानियों की छट दी है। नारद (१२।४) एवं बृहस्पति ने लिखा है कि क्रेता को चाहिए कि वह क्रय की जानेवाली वस्तु का स्वयं निरीक्षण कर ले और अन्य लोगों को दिखाकर उसके गुण-दोषों की परख कर ले, क्योंकि अत्यन्त परीक्षण के उपरान्त क्रीत वस्तु
६. एवं धर्मो दशाहात्तु परतोऽनुशयो न तु । कात्यायन ६८४ (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २१८; विवादरत्नाकर पृ० १९२; पराशरमाधवीय ३, पृ० ३६७)।।
७. भूमेदंशाहे विक्रतुरायस्तत्ऋतुरेव च । द्वादशाहः सपिण्डानामपि चाल्पमतः परम् ॥ कात्यायन (६८५, पराशरमाधवीय ३, पृ० ३६४)।
८. सत्यंकारकृतं द्रव्यं द्विगुणप्रतिदापयेत् । याज्ञ० (२०६१); और देखिये इस पर मिताक्षरा । सत्यंकारं च यो दत्त्वा यथाकालं न दृश्यते । पण्यं भवेन्निसृष्टं तद्दीयमानमगृह्णतः ॥ व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २२०; पराशरमाधवीय ३, १० ३७०)। क्लीबे सत्यापनं सत्यंकारः सत्याकृतिः स्त्रियाम् । अमरकोश, जिस पर क्षीरस्वामी ने कहा है--'अवश्यं मयेतद् विक्रयमिति सत्यस्य करण सत्यापनम' (दे० पाणिनि ६।३७०)।
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