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________________ ८०६ धर्मशास्त्र का इतिहास यदि वह ऐसा न करे तो उसको उस प्राप्ति का ग्यारह गुना दण्ड रूप में देना पड़ता है। स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ०२२४) का कथन है कि गण के लाभ में लगे हुए मुख्यों के विरोध में जो जाता है उसे गण द्वारा दंडित होना पड़ता है । कात्यायन (६७७) ने व्यवस्था दी है कि गण के लिए सभा या सलाहकारों द्वारा जो ऋण लिया जाय, प्राप्त किया जाय, रक्षित किया जाय, राज प्रसादस्वरूप जो कुछ प्राप्त किया जाय, वह सब बराबर-बराबर सभी सदस्यों में बँट जाना चाहिए। कात्यायन (६४४-६४५) का कथन है कि गण के लिए सभा के लोग जो कुछ ऋणलें और उसका दुरुपयोग कर दें या अपने कामों में लगा दें, तो वह सब उन्हें लौटाना पड़ता है; और जो लोग आगे चलकर गण में सम्मिलित होते हैं उन्हें गण के सभी पुराने हानि-लाभों में हाथ बँटाना पड़ता है । मनु ( ८२२० ) और बृहस्पति ने संघ के साथ कपट करने वाले पर चार सुवर्णों के छः निष्कों (या छः निष्कों तथा चार सुवर्णो ) का दण्ड बतलाया है। कात्यायन (६७१) का कथन है कि उस व्यक्ति (सदस्य) को, जो उचित बातों का विरोध करता है, जो बोलने वाले को बार-बार टोकता है या जो व्यर्थ में बक-बक करता है, अर्थ-दण्ड देना पड़ता है । याज्ञ० ( २1१८७ ) के अनुसार गण की सम्पत्ति के दुरुपयोगी तथा नियमों को तोड़ने वाले की सम्पत्ति छीनकर देश- निष्कासन का दण्ड देना चाहिए । मिताक्षरा के अनुसार इस प्रकार से तथा अन्य दण्ड अपराधी के अपराध एवं योग्यता पर निर्भर रहने चाहिए। ४ क्रयविक्रयानुशय ( क्रय-विक्रय के उपरान्त पछतावा या पश्चात्ताप ) मनु (८२२२ ) एवं कौटिल्य ( ३।१५) ने इसे व्यवहार का एक पद या शीर्षक (पूर्वोक्त १८ पदों के अन्तर्गत ) माना है । किन्तु नारद (११ एवं १२ ) ने इसे दो शीर्षकों में विभक्त कर दिया है; विक्रीयासमादान ( बेच देने के उपरान्त सामान न देना) एवं क्रीत्वानुशय ( क्रय करने के उपरान्त पश्चात्ताप ) मनु का कथन है कि जब क्रय या विक्रय करने के उपरान्त पछतावा होने लगे तो दस दिनों के भीतर सामान लौटाया जा सकता है। नारद (११।२) के मत से सम्पत्ति दो प्रकार की है; चल एवं अचल । सभी सम्पत्ति पण्य ( बिक्री करने योग्य) मानी गयी है । याज्ञ ० (२।२५४), नारद (११।४ - ५ ) एवं विष्णु ( ५।१२७ ) के मत से यदि कोई व्यक्ति सम्पत्ति बेचकर उसे क्रेता को नहीं देता, तो उसे उतने समय ( बेचने और देने के बीच की अवधि ) तक के हरजाने के साथ उसे देना पड़ता है; यदि वह सम्पत्ति जंगम (चल) हो तो लाभ का मूल्य भी देना पड़ता है । " विष्णु ० (५।१२८) ने ऐसे विक्रेता पर १०० पणों का दण्ड भी लगाया है । कौटिल्य ( २।१५) ने लिखा है कि यदि बिक्री करने के उपरान्त विक्रेता सामान न दे या क्रेता क्रय के उपरान्त उसे न ले जाय तो दोनों को १२-१२ पणों का दण्ड देना चाहिए, किन्तु यदि बस्तु दोषपूर्ण हो या राजा, चोरी, अग्नि या जल द्वारा नष्ट हो जाय, या लेन-देन कम में हुआ हो या कष्ट की स्थिति में क्रय-विक्रय हुआ हो तो दण्ड नहीं लगता । ३. यत्तः प्राप्तं रक्षितं वा गणार्थे वा ऋणं कृतम् । राजप्रसादलब्धं च सर्वेषामेव तत्समम् ।। गणमु व् बेश्य यत्किञ्चित्कृत्वर्णं भक्षितं भवेत् । आत्मार्थं विनियुक्तं वा देयं तेरेव तद् भवेत् || गणानां श्रेणिवर्गाणां गताः स्युर्ये तु मध्यताम् । प्राक्तनस्य धनर्णस्य समांशाः सर्व एव ते । कात्यायन ( सरस्वतीविलास, पृ० ३३०-३३१; विवादरत्नाकर पृ० १६७; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २२७; व्यवहारप्रकाश, पृ० ३३८ ) । ४. मनुप्रतिपादितदण्डानां निर्वासनचतुः सुवर्ण निष्कशतमानानामन्यतमो जातिशक्त्याद्यपेक्षया कल्पनीयः । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१८७ ) । ५. विक्रीय पण्यं मूल्येन ऋतुर्यो न प्रयच्छति । स्थावरस्योदयं दाप्यो जंगमस्य क्रियाफलम् || नारद ( ११।४ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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