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________________ वर्गों या सघों के आन्तरिक समय (करार) ८०५ प्रकाश (पृ० ३३२-३३३) ने ज्यों-का-त्यों ले लिया है। उसका कहना है कि नास्तिक (पाषण्डी) लोग भी अपने मठों के लिए नियम बनाते हैं। नगमों में एक नियम ऐसा है कि जो लोग किसी विशिष्ट वस्त्रसे युक्त नौकरों के संदेश की परवाह नहीं करते वे दण्डित होते हैं । श्रेणी शब्द जुलाहों के समान अन्य शिल्पियों के समूह का द्योतक है । उनके ऐसे नियम हैं कि कुछ वस्तुएँ केवल एक दल बेच सकता है अन्य नहीं। पूग हाथियों एवं घोड़ों के सवारों के दल को कहते हैं । कात्यायन ने वात को विभिन्न प्रकार के हथियारों से लैस व्यक्तियों का समूह कहा है। महाभाष्य (पाणिनि ॥२॥ २१'वातेन जीवति') ने इसे उन लोगों का दल माना है जो विभिन्न जातियों एवं वृत्तियों के होते हैं और अपने शक्तिशाली (बलिष्ठ) शरीर पर आश्रित होते हैं । मिताक्षरा के अनुसार वे लोग बौद्धों के समान हैं जो वेद को प्रमाण नहीं मानते । मिताक्षरा के अनसार गण का तात्पर्य उन लोगों से है (अर्थात उनके दल या समह से है) जो किसी एक वत्ति से अपनी जीविका चलाते हैं। कात्यायन (६८०)ने गण को ब्राह्मणों का संघ माना है। राजतरंगिणी (२११३३) में मंदिरों एवं तीर्थों के पुरोहितों के संघ की ओर संकेत आया है। स्मृतिचन्द्रिका के मत से पूगों एवं बातों में एक ऐसी परम्परा या नियम या समय है कि उन्हें एक साथ समर में जाना चाहिए पृथक्-पृथक् नहीं । गणों में एक ऐसी परम्परा है कि बच्चों के कान पाँचवें दिन या पाँच वर्षों के उपरान्त छेदे जाने चाहिए। ब्राह्मणों की एक पुरी (बस्ती) के महाजनों में एक ऐसा नियम (परम्परा या समय) है कि यदि कोई ब्राह्मण वैदिक शिक्षा के उपरान्त गुरु-दक्षिणा का धन एकत्र करने के लिए उनके यहाँ जाय तो उसका सम्मान करना चाहिए (अर्थात् उसे चन्दा देना चाहिए)। कुछ जनपदों में ऐसा समय (प्रचलन) है कि क्रेता या विक्रेता अपने हाथ में मूल्य का दशांश रख लेता है (सम्भवतः यह जानने के लिए कि वस्तु उपयोगी है या नहीं और अनुपयोगी सिद्ध होने पर वह वस्तु को लौटा देता है)। दुर्गों या राजधानियों में एक समय ऐसा है कि बाहर जाते समय यदि कोई साथ में अन्न ले जाय तो उसे बेचे नहीं। ग्रामों में ऐसा समय है कि चरागाह न खोदे जाय । आभीरों के ग्रामों में ऐसा समय है कि स्त्री या पुरुष के व्यभिचार के लिए दण्ड न लगे। धर्मशास्त्र कार इतने उदार थे कि उन्होंने पाषण्डियों के समयों के पालन के लिए भी राजा को उद्वेलित किया था। केवल इस बात का ध्यान रखा गया था कि समयों का पालन राज्य या राजधानी के विरोध में न जाय और क्रांति न उत्पन्न होने पाये और न अनैतिकता प्रदर्शित हो सके (नारद १३॥४-५ एवं ७, मेधातिथि, मनु (८।२२०)। याज्ञ० (२।१८८-१६२) ने नियम दिये हैं--संघों, श्रेणियों आदि के व्यापार-कार्य को देखने के लिए कोई सभा (बृहस्पति के अनुसार दो, तीन या पाँच व्यक्तियों की) होनी चाहिए। इन सभाओं के सदस्य धार्मिक, पवित्र, अलोभी होते थे और जो कुछ तय पाता था उसके अनुसार कार्य करते थे । इन्हें कार्यचिन्तक की संज्ञा मिली है । याज्ञवल्क्य ने लिखा है कि यदि कार्यचिन्तक लोग संघ के किसी कार्य को लेकर राजा के पास जायें तो उनको उपहार देकर सम्मानितकरना चाहिए। बज कोई व्यक्ति व्यापार के लिए बाहर जायतो उसे जो कुछ प्राप्ति हो उसे गणों के मुखियों को समर्पित कर देना चाहिए। २. पूगवाते चान्योन्यमुत्सृज्य समरे न गन्तव्यमित्यादयः सन्ति समयाः। गणे तु पञ्चमेह्नि पञ्च मे वादे कर्णवेधः कर्तव्य इत्येवमादिरस्ति समयः । गणादिष्वत्रादिशब्देन बह्मपुरीमहाजनः परिगृहीतः। तत्र गुरुदक्षिणाद्यर्थमागतो माननीय इत्यादिसमयोस्ति । दुर्गे तु धान्यादिकं गृहीत्वा अन्यत्र यास्यता न तद्विक्रयमित्यस्ति समयः । जनपदेतु क्वचिद्विक्रेतुहस्ते दशबन्धग्रहण कार्य क्वचित्क्रेतहस्ते इत्यादिकोस्त्यनेकविधः समयः । जनपदे तथेत्यत्र तथाशब्दोऽनुक्तप्रामघोषपुरादीनां प्रदर्शनार्थः । तत्र गोप्रचारणस्थाने न खातव्यमित्यादिकोस्ति ग्रामे समयः । आभीरस्त्रीपुरुषव्यभिचारे न दण्ड इत्यादिकोस्ति घोषे समयः । स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २२३ (नारद १३॥२--'पाषण्डिनगमश्रेणीपुगवातगणादिषु । संरक्षेत् समयं राजा दुर्गे जनपदे तथा ॥) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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