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________________ अध्याय २१ संविद्-व्यतिक्रम एवं अन्य व्यवहार-पद इस अध्याय में हम समयों (संविदभ्युपगमों, समझौतों)अथवा नियमपत्रों तथा अन्य परम्पराओं के व्यतिक्रम के विषय में लिखेंगे । नारद (१३।१)ने इसके लिए समयस्यानपाकर्म का प्रयोग किया है, मनु (८।५) ने प्रथम शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु मनु (८।२१८-२१६) में दोनों नामों की ओर संकेत मिलता है, यथा-"अब मैं उन नियमों की व्यवस्था दूंगा जो समयों (परम्पराओं या रूढ़ियों) के व्यतिक्रम-कर्ताओं के लिए प्रयुक्त होते हैं। जो किसी ग्राम के या जिले के निवासियों या व्यापारियों के किसी दल या किसी अन्य प्रकार के लोगों के साथ शपथ लेकर संविद् में आता है और (आगे चलकर) इसका लोभवश अतिक्रमण करता है, वह राजा द्वारा देश-निष्कासन का दण्ड पाता है।" आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।१।२० एव २।४।८।१३) में 'समय' शब्द रूढ़ि या अंगीकृत सिद्धान्त के अर्थ में आया है (न्यायवित्समय)।' यह शब्द समझौते (एग्रीमेन्ट) के अर्थ में भी लिया गया है (याज्ञ० ११६१), यथा 'गान्धर्वः समयान्मिथः।' जैसी कि मेघातिथि (मनु पा२१६)ने व्याख्या की है, इसका अर्थ है "बहुत से लोगों द्वारा किसी विशिष्ट नियम या रूढ़ि या परम्परा का अंगीकार करना।" इससे सकेत मिलता है कि वह नियम किसी दल (सघ या गण) द्वारा अंगीकृत स्थानीय या जातीय प्रचलन से सम्बन्धित होना चाहिए जो दल के सभी सदस्यों को मान्य हो याउन्हें एक सत्र में बांध रखता हो। अमरकोश ने आचार एवं संविद को समय के पर्यायों में गिना है (समयाः सविदः)। मेधातिथि (मन ८२१६-२२०)ने लिखा है कि यदि किसी ग्राम के वासी यह निर्णय करें कि यदि पड़ोसी ग्राम के लोग उनके खेतों या चरागाहों में अपने पशु लायें या नहरों को अपनी ओर घुमा ले तो वे उनको रोकेंगे तथा ऐसा करने पर यदि मारपीट हो जाय या राजा के यहाँ मुकदमा चलना आरम्भ हो जाय तो सभी एकमत रहेंगे तथा उस व्यक्ति को दण्ड देंगे जो दूसरे ग्राम के मुखिया की ओर मिल जाय तथा विपक्षी की सहायता करे । नारद (१३।१) के मत से नास्तिकों, नगमों आदि द्वारा निश्चित नियम (परम्पराएँ) समय के उदाहरण हैं। याज्ञ० (२।१६२),नारद (१३।२) का कथन है कि राजा द्वारा पुरों एवं जनपदों के संघों, नैगमों, नास्तिकों, श्रेणियों, पूगों, गणों के नियमों (परम्पराओं या रूढ़ियों) की रक्षा होनी चाहिए और उन्हें कार्यान्वित करना चाहिए। इस भाग के पाँचवें अध्याय ५ में हमने संघों आदि के विषय में कुछ संकेत किया है। हमने दूसरे भाग के दूसरे अध्याय में श्रेणी, पूग, गण आदि के अर्थ भी बताये हैं। कुछ अन्य बातें यहाँ दी जा रही हैं। संघों की मान्यताएं (समय-क्रिया) स्म तिचन्द्रिका (२, पृ० २२३) ने विभिन्न समूहों के समयों पर मनोरंजक प्रकाश डाला है जिसे व्यवहार १. धर्मज्ञसमयः प्रमाण वेदाश्च । आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।१।१।२) । अङ्गानां तु प्रधानरव्यपदेश इति न्यायवित्समयः ॥ आपस्तम्बधर्म सूत्र (२।४।८।१३)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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