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सेवा और दासप्रथा
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कात्यायन (७२५) का कथन है कि यदि कोई स्त्री किसी दास से विवाह करती है तो वह अपने पति के स्वामी की दासी हो जाती है। यदि कोई व्यक्ति किसी ब्राह्मण नारी को बेचता है या खरीदता है तो उस लेन-देन में सभी लोगों को राजा द्वारा दण्ड मिलता है और वह व्यापार या कार्य कानून द्वारा तोड़ दिया जाता है। यही नियम उस कुलीन कुटुम्ब की नारी के विषय में भी है जो किसी के यहाँ आश्रय ग्रहण करती है और आश्रयदाता उसे दासी बना लेता है या किसी दूसरे को उसे दासी रूप में दे देता है (कात्यायन ७२६-७२७) । उस व्यक्ति पर दण्ड लगता है जो अपने बच्चे की दाई के साथ सम्भोग करता है या किसी अन्य नारी से जो दासी नहीं है, या अपने नौकर की पत्नी से (मानो वह उसकी दासी है) ऐसा करता है। जो व्यक्ति कष्ट में न रहने पर और प्रचुर सम्पत्ति के रहते हुए अपनी विश्वासपात्र रोती हुई दासी (क्योंकि वह उसे छोड़ना नहीं चाहती) को बेच देना चाहता है, उस पर २०० पण का दण्ड लगता है (कात्यायन, अपरार्क पृ० ७८७; विवादरत्नाकर पृ० १५४-१५५; व्यवहारप्रकाश पृ० ३२३)।१२ नारद (८।४०) के मत से कोई दास अपने स्वामी को छोड़कर किसी अन्य का दास नहीं बन सकता । उशना का कथन है कि कोई गुरुजन (वृद्ध व्यक्ति), सपिण्ड, ब्राह्मण, चाण्डाल या किसी हीन जाति का व्यक्ति दास नहीं बनाया जा सकता और न किसी उच्च जाति के विद्वान व्यक्ति को उससे हीन जाति का व्यक्ति अपना दास बना सकता है।३
११. वासेनोढात्वदासी या सापि दासीत्वमाप्नुयात् । यस्माद् भर्ता प्रभुस्तस्याः स्वाम्यधीनः प्रभुर्यतः ॥ कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०१, व्यवहारप्रकाश पृ० ३२२, सरस्वतीविलास पृ. २६४)।
१२. आवद्यात् ब्राह्मणी यस्तु विक्रीणीत तथैव च, राजा तदकृतं कार्ग दण्ड्याः स्युः सर्व एव ते ॥ कामात्तु संश्रितां यस्तु दासी कर्यात्कुलस्त्रियम् । संक्रामयेत वान्यत्र दण्ड्यस्तच्चाकृतं भवेत् ॥ बालधात्रीमदासी च वासीमिव भुनक्ति यः । परिचारकपत्नी वा प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम् ॥ विक्रोशमान यो भक्तां दासी विक्रेतुमिच्छति । अनापदिस्थः शक्तः सन् प्राप्नुयात् द्विशतं दमम् ॥ कात्यायन (अपराकं पृ० ७८६, विवादरत्नाकर पृ० १५४-१५५, व्यवहारप्रकाश पृ० ३२२)।
१३. न गुरुर्न सपिण्डश्च न विप्रो नान्त्ययोनयः । दासभावं न तेऽहन्ति नच विद्याधिको द्विजः ॥ उशना (सरस्वतीविलास पृ० २६६)।
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