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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास किये हुए कार्य का प्रतिफल भोगता है । यदि अन्तेवासी को सिखाने वाला उसे सिखाता नहीं तथा अन्य कार्यं कराता है तो उसे दण्डित होना पड़ता है और अन्तेवासी उसे छोड़ सकता है। कर्म, वेतन एवं अवधि के अनुरूप भृतकों की कई श्रेणियाँ होती हैं । वे इन्हीं के अनुसार अन्तेवासियों से भिन्न होते हैं, अन्यथा जाति एवं जीविका के रूप में उनमें कोई विशिष्ट अन्तर नहीं होता है । नारद ( ८।२२-२३) एवं बृहस्पति के अनुसार भृतक के तीन प्रकार हैं और उनके वेतन उनके कार्यों एवं योग्यताओं के अनुसार विभिन्न होते हैं । वे प्रकार हैं-- उत्तम ( सैनिक आदि), मध्यम ( खेती करने वाले ) एवं हीन ( द्वारपाल आदि ) । १० एक भूतक एक दिन, एक पक्ष, एक मास या अधिक समय तक के लिए रखा जा सकता है और उसे तय किया हुआ कार्य करके पूर्व निश्चित वेतन ग्रहण करना होता है। उसे सिक्कों के रूप में या अन्न के रूप में या दुग्ध के रूप में (यदि पशु पालन करता हो) वेतन मिलता है । ८०२ नारद (८२४) के मत से वह व्यक्ति जो अन्य नौकरों की अधीक्षकता के लिए रखा जाता है या जो घर के आयare - निरीक्षण के लिए नियुक्त किया जाता है, अधिकर्मकृत् कहलाता है। ये चार प्रकार के कर्मकर ( शिष्य, अन्तेवासी, भृतक एवं अधिकर्मकृत् ) शुभ (पवित्र) कार्यं करते हैं, किन्तु पन्द्रह प्रकार के दास हीन एवं गन्दे से गन्दा कार्य करते हैं। ( नारद ८।२५) | कर्मकरों एवं दासों में अन्तर यह है कि प्रथम प्रकार के सेवक कुछ स्वतन्त्रता रखते हैं किन्तु दास पूर्णरूपेण अपनी स्वतन्त्रता खो बैठते हैं। ब्राह्मण को दास नहीं बनाया जा सकता था । अति प्राचीन काल में सेवकों के कार्यों का उत्तरदायित्व स्वामी पर नहीं होता था। गौतम ( १२।१७) ने लिखा है कि यदि पशुपालक द्वारा किसी के खेत की हानि हो जाय तो उसका उत्तरदायित्व स्वामी पर नहीं होता । किन्तु मनु ( ८।२४३), याज्ञ० (२।१६१), नारद (१४/२६) एवं बृहस्पति का कथन है कि ऐसी स्थिति में स्वामी का उत्तरदायित्व होता है और उसे हरजाना देना पड़ता है । हमने दासों एवं दास प्रथा के विषय में बहुत पहले, द्वि० भाग अ० ५ में लिख दिया है। कुछ बातें यहाँ भी दी जा रही हैं। राइस डेविड्स ने अपनी पुस्तक 'बुद्धिस्ट इण्डिया' ( पृ० ५६ ) में लिखा है कि यूनान के समान भारत में दासों की अवस्था अत्यन्त शोचनीय नहीं थी। राजतरंगिणी (४।३६) में आया है कि राजा वज्रादित्य ने (८वीं शताब्दी) बहुत से व्यक्तियों को दास रूप में म्लेच्छों को बेंच दिया । आधुनिक काल में अंग्रेज सरकार ने भारत के आसाम, बंगाल तथा अन्य प्रान्तों के चाय-कर्म करों के लिए बड़े कठिन कानून बनाये थे, जिनके फलस्वरूप उन्हें बहुत कम वेतन पर अस्वास्थ्यकर स्थानों एवं परिस्थितियों में काम करना पड़ता था । यह एक काला दाग है जिसे उक्त शासकों ने अपने माथे पर लगाया था (आसाम लेवर एण्ड एमिग्रेशन एक्ट ६, सन् १६०१, सेक्शन १६८ - १६६ ) । ६. अनेकधा तेऽभिहिता जातिकर्मानुरूपतः । विद्याविज्ञानकामार्थनिमित्तेन चतुविधाः । एकैकः पुनरेतेषां क्रियाभेदात्प्रपद्यते ॥ विद्या त्रयी समाख्याता ऋग्यजुः सामलक्षणा । तदर्थं गुरुशुश्रूषां प्रकुर्याच्छास्त्रदेशिताम् ॥ विज्ञानमुच्यते शिल्पं हेमकुप्यादिसंस्कृतिः । नृत्यादिकं च तच्छिक्षन् कुर्यात् कर्म गुरोगृहे ॥ बृहस्पति ( विवादरत्नाकर पृ० १४०-१४१); स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६५; व्यवहारप्रकाश प० ३१४; व्यवहारसार पृ० १५५ ) । यस्तु न ग्राहयेfugeपं कर्माण्यन्यानि कारयेत् । प्राप्नुयात्साहसं पूर्वं तस्माच्छिष्यो निवर्तते ॥ कात्यायन ( अपरार्क पृ० ७६०; पराशरमाधवीय ३, ३३८; विवादरत्नाकर पृ० १४१ ) । १०. बहुधार्थभृतः प्रोक्तस्तथाभागभृतोऽपरः । हीनमध्योत्तमत्वं च सर्वेषामेव चोदितम् ॥ दिनमासार्ध षण्मासत्रिमासाब्द भृतस्तथा । कर्म कुर्यात्प्रतिज्ञातं लभते पारिभाषितम् । बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६६, पराशरमाधवीय ३, पृ० ३३६-४० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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