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शुल्कविवाद; सेवकों की श्रेणियाँ
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पर.वेश्याओं को दिये धन के बराबर अर्थ-दण्ड लगता है और यदि कोई वेश्या शुल्क लेने के उपरान्त किसी अन्य आगन्तुक से सम्बन्ध रखती है या कहीं और चली जाती है तो उसे अपने शुल्क का दूना पहले से निश्चित व्यक्ति को और उतना ही राजा को देना पड़ता है। इसी प्रकार यदि कोई व्यक्ति किसी वेश्या को किसी व्यक्ति के यहाँ ले जाने का निश्चय करके किसी अन्य व्यक्ति के यहाँ ले जाता है तो उस पर एक स्वर्ण-माषक का अर्थ-दण्ड लगता है।
मत्स्यपुराण (२२७।१४७) के मत से यदि वेश्यागामी किसी वेश्या के साथ रमण करने के उपरान्त उसे निश्चित शुल्क नहीं देता है तो उसे उसका दूना वेश्या को तथा राजा को देना पड़ता है। नारद का कथन है कि मुख्य वेश्याओं एवं उनकी अन्य भोग-निरत सहयोगिनियों को वेश्या-सम्बन्धी लेन-देन के विवाद सुलझाने चाहिए (स्मृति चन्द्रिका २, पृ० २०६; विवादरत्नाकर पृ० १६७ एवं व्यवहारप्रकाश पृ० ३३०)। और देखिये नारद (२२७११४७) । अभ्युपेत्याशुश्रूषा
सेवा करने का करार कर लेने के उपरान्त वैसा न करने को अभ्युपेत्याशुश्रूषा कहते हैं। प्राचीन धर्मसूत्रों में सेवकों के दो प्रकार बताये गये हैं; खेती के नौकर तथा पशुपालक (आपस्तम्ब० २१२०२८।२-३ एवं गौतम १२।१६१७) । नारद (८।२ एवं ३) के मत से सेवा करने वालों के पाँच प्रकार हैं-चार कर्मकर, यथा शिष्य, अन्तेवासी, भृतक एवं अधिकर्मकृत् (भृतकों के अधीक्षक या मेट) तथा १५ प्रकार के दास। इन पाँच प्रकार के सेवकों को अपनी इच्छा से कुछ करने का अधिकार नहीं है, किन्तु उनकी जाति, विशेषताओं एवं उनके रहन-सहन के अनुसार उनमें अन्तर पाया जाता है (नारद ८।४) । शिष्य वह है जो अपने गुरु से वैदिक शिक्षा की आकांक्षा करता है; अन्तेवासी वह है जो सुनारी या किसी अन्य शिल्प में, यथा नृत्य आदि में शिक्षा ग्रहण करता है; भूतक वह है जो पारिश्रमिक पर रखा गया नौकर है तथा अधिकर्मकृत् भृतकों का अधीक्षक है। कार्य (कर्म) के दो प्रकार हैं; शुभ (स्वच्छ कर्म जो चार प्रकार के कर्मकर करते हैं) एवं अशभ (गंदे). जिन्हें दास करते हैं।
अशुभ कर्म ये हैं-गृह-द्वार बुहारना, सड़क, गन्दे स्थल आदि स्वच्छ करना, स्वामी के अंगों को रगड़ना या मलना-दबाना, उच्छिष्ट भोजन, जूठन कणों को एकत्र कर फेंकना, मल-मूत्र फेंकना, हाथ आदि से स्वामी के गुप्तांग स्वच्छ करना । इसके अतिरिक्त अन्य कार्य शुभ हैं।
शुभ कर्मकर वैदिक विद्या या विज्ञान (कला या शिल्प) के लिए कार्य करते हैं। वैदिक शिष्यों के कर्तव्य ये हैं--गुरु, गुरु-पत्नी, गुरु-पुत्र की सेवा करना, भिक्षाटन करना, भूमि पर सोना,गुरु की आज्ञा पालना, वेदाध्ययन, विद्याध्ययनोपरान्त गुरु-दक्षिणा देना (नारद ८।८-१५)। शिष्यों के कर्तव्यों से अन्तेवासियों के कर्तव्य एवं उनकी जीविकाविधियाँ भिन्न हैं । याज्ञ ० (२।१८४), नारद (८1१६-२१), बृहस्पति एवं कात्यायन (७१३) के अनुसार अन्तेवासी सुनारी, गाना, नृत्य, गृह-निर्माण आदि सीखने की इच्छा से अपने शिल्पी गुरु के साथ रहता है और कुछ अवधि के लिए उसके साथ कार्य करता है। शिल्पी उसे अपने पास रख कर सिखाता है, भोजन देता है और कोई अन्य कार्य नहीं कराता। यदि शिल्पी उसे सिखाना चाहता है किन्तु वह उसे छोड़कर चला जाना चाहता है तो शिल्पी उसे कोड़े मार सकता है और बन्दी करके रख सकता है। भले ही शिष्य दक्ष हो गया हो किन्तु उसे अवधि तक रहना पड़ता है और शिल्पी उसके
८. आज्ञाकरणं शुश्रूषा तामङ्गीकृत्य पश्चाद्यो न सम्पादयति तद्विवादपदमभ्युपेत्याभुश्रूषाख्यम् । मिताक्षरा (याज्ञ० २।१८२)।
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