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________________ राजनीति एवं धर्मनीति अर्थशास्त्र को उपवेद की संज्ञा दी गयी है । विष्णुपुराण (३।६।२८), वायुपुराण (६१।७६ ), ब्रह्माण्डपुराण (३५८८८६) आदि ने आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद एवं अर्थशास्त्र को चार उपवेद कहा है । को यद्यपि सिद्धान्त रूप से अर्थशास्त्र को धर्ममार्ग पर चलना चाहिए, किन्तु व्यावहारिक रूप में महाभारत एवं कौटिल्य ने कतिपय स्थलों पर नैतिकता के सिद्धान्तों की अवहेलना करने की बात कही है । शान्तिपर्व ( १४० ) में ऐसी बातें आयी हैं, जिन्हें हम किसी रूप में नैतिक अथवा धार्मिक नहीं कह सकते । दो-एक उदाहरण अवलोकनीय हैं-- ' बोलने में मधुर एवं विनम्र होना चाहिए, किन्तु भीतर (हृदय में) तीक्ष्ण छुरी के सदृश होना चाहिए (शान्तिपर्व १४०।१२ ) ; धन-सम्पत्ति की लालसा रखने वाले को हाथ जोड़ना चाहिए, शपथ खानी चाहिए, मधुर वाणी का प्रयोग करना चाहिए, चरण-चुम्बन करना चाहिए, यहाँ तक कि आँसू भी बहाने चाहिए; एक व्यक्ति अपने शत्रु कंधे पर भी ढोये, किन्तु काम हो जाने पर मिट्टी के बरतन के समान उसे प्रस्तर खण्ड पर पटक कर तोड़-फोड़ देना ( मार डालना) चाहिए ( शान्ति० १४० | १७|१८), आदि। इन बातों को पढ़कर पाठक महाभारत के विषय में विचित्र धारणाएँ बना सकते हैं, किन्तु ये बातें आपत्तियों के समय करणीय मानी गयी हैं । युधिष्ठिर ने स्वयं इन बातों का विरोध किया और भीष्म पितामह से कहा कि ये बातें घोर अनैतिक हैं। ये बातें सम्भवतः भारद्वाज - जैसे लेखकों की उक्तियों से सम्बन्धित हैं । स्वयं भीष्म ने आगे चलकर कहा है कि ये बातें 'शठे शाठ्यं समचरेत्' के नियम से सम्बन्धित हैं, सामान्यतः राजा ऋजु मार्ग का अनुसरण करता है। किन्तु दुष्ट, अनैतिक एवं क्रूर शत्रुओं से वैसा करना नीति विरुद्ध नहीं है। भीष्म ने कहा है कि सदा नैतिक बातों का पालन नहीं करना चाहिए, सुविचारणा एव तर्क का आश्रय लेना श्रेयस्कर होता है (शान्ति० ५/७ १७ ) | महाभारत ने स्थान-स्थान पर धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के सिद्धान्तों का समन्वय उपस्थित किया है । कौटिल्य ने लिखा है कि अर्थशास्त्रकारों ने क्रूर, स्वार्थान्ध एवं अनैतिक सम्मतियाँ देने में कोई संकोच नहीं किया है। उन्होंने लिखा है कि भारद्वाज के अनुसार राजकुमार लोग कर्कट ( केकड़ा ) हैं जो अपने माता-पिता को खा डालते हैं, अत: यदि वे अपने पिता को न प्यार करें तो उन्हें गुप्त रूप से समाप्त कर देना चाहिए । किन्तु विशालाक्ष भारद्वाज की इस उक्ति की भर्त्सना की है और कहा है कि इस प्रकार राजकुमारों को समाप्त कर देना अनुचित, क्रूरता प्रदर्शन एवं क्षत्रिय कुल-नाशक है, ऐसे राजकुमारों को एक ही स्थान पर बन्दी बनाकर रखना कहीं श्रेयस्कर है। वातव्याधि ने लिखा है कि राजकुमारों को अति काम वासना में लगा देना चाहिए। कौटिल्य ने इस सम्मति की भर्त्सना की है। उन्होंने लिखा है कि गर्भाधान एवं उत्पत्ति के विषय में उचित अवधानता रखी जानी चाहिए एवं धर्म की शिक्षा-दीक्षा देनी चाहिए। भारद्वाज को उद्धृत कर कौटिल्य ने एक अन्य विचित्र नियम की ओर भी ध्यान आकृष्ट किया है, जो उनके अर्थशास्त्र - प्रणयन के पूर्व कतिपय अर्थशास्त्रकारों द्वारा प्रतिपादित किया गया था। भारद्वाज ने लिखा था कि राजा की मृत्यु के समय मन्त्रीको चाहिए कि वह राजकुमारों को एक-दूसरे के विरोध में खड़ा कर दे और आगे चलकर अन्य सम्बन्धियों को भी उभाड़ दे। इस प्रकार सबका गुप्त रूप से हनन करके या उन्हें दबाकर उसे स्वयं राज्य पर अधिकार कर लेना चाहिए । कौटिल्य इस मत के विरोधी हैं। किन्तु स्वयं उन्होंने अधार्मिक या दुष्ट लोगों के नाश के लिए विष, दवाओं तथा मन्त्र- प्रयोगों का प्रतिपादन किया है ( औपनिषदिक, १४) । कौटिल्य ने भी अनैतिक एवं क्रूर नीतियों के पालन की बात चलायी है (१।१८, ५1१, ५।२ ) । खाली कोश को भरने के लिए उन्होंने राजा से कहा है कि वह मन्दिरों की सम्पत्ति भी हड़प सकता है। स्वयं कौटिल्य ने दुरभिसंधियों की चर्चा की है और राजा की सुपुष्ट स्थिति की स्थापना के लिए शत्रुओं, राजकुमारों, सम्बन्धियों या विरोधी राजपुरुषों के गुप्त हनन की बात चलायी है । राजधर्म-सम्बन्धी संस्कृत-साहित्य बहुत विशाल है । आपस्तम्ब-जैसे कतिपय धर्मसूत्रों में भी संक्षेपतः इसकी Jain Education International १८३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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