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धर्मशास्त्र का इतिहास
को अर्थशास्त्र की संज्ञा दी है। दण्डी ने कौटिल्य द्वारा उल्लिखित कुछ अर्थशास्त्रकारों के नाम भी लिखे हैं। अमरकोश ने दोनों को समानार्थक ठहराया है । मनु (७।४३) की टीका में मेधातिथि ने 'दण्डनीति' की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह चाणक्य एवं अन्य लोगों द्वारा प्रणीत थी। याज्ञवल्क्य (11३११) की टीका मिताक्षरा में दण्डनीति को अर्थशास्त्र के अर्थ में लिया गया है। शकर कीतिसार (४।३।५६) में आया है-"अर्थशास्त्र वह है, जिसमें राजाओं के आचरण आदि के विषय में ऐसा अनुशासन एवं शिक्षण हो जो श्रुति एवं स्मति से भिन्न हो और जिसमें बड़ी दक्षता के साथ सम्पत्ति-प्राप्ति के लिए शिक्षा दी गयी हो।"
'अर्थशास्त्र' एवं 'दण्डनीति' शब्द दो दृष्टिकोणों से शासन-शास्त्र के लिए प्रयुक्त हुए हैं। कामसूत्र (१।२०) में अर्थ की परिभाषा शिक्षा, भूमि, स्वर्ग, पशु, धान्य, बरतन-भाण्ड एवं मित्र तथा वाञ्छित वस्तुओं के परिवर्धन से समन्वित की गयी है। अत: जब सभी प्रकार के धन एवं सम्पत्ति के उद्गम एवं वृत्ति के निरूपण को शास्त्र की संज्ञा दी गयी तो इनके विषय-विवेचन को अर्थशास्त्र' कहा गया, इसी प्रकार प्रजा-शासन एवं अपराध-दण्ड को विशिष्टता दी गयी तो शासनशास्त्र को दण्डनीति' के नाम से कहा गया। यद्यपि कौटिलीय अर्थशास्त्र-जैसे ग्रन्थों में धर्म को प्रभूत महत्ता दी गयी है, किन्तु वे प्रधानतः केन्द्रीय एवं स्थानीय शासन, करग्रहण, साम एवं अन्य उपायों के प्रयोग, सन्धि, विग्रह तथा कर्मचारियों एवं दण्ड की नियुक्ति से सम्बन्धित हैं । अतः अर्थशास्त्र प्रमुखत: दृष्टार्थ-स्मृति है, जैसा कि भविष्यपुराण में कहा गया है (अपरार्क द्वारा उद्धृत, पृष्ठ ६२६, स्मृतिचन्द्रिका, पृ० २४ एवं वीरमिनोदय, परिभाषा, पृ० १६)। मेधातिथि ने मनु (७१) की टीका में धर्म को कर्तव्य (धर्मशब्दः कर्तव्यतावचनः) के अर्थ में लिया है, राजा के कर्तव्य या तो दृष्टार्थ (अर्थात् जिनके प्रभाव सांसारिक हों और देखे जा सकें) हैं या अदृष्टार्थ (जिन्हें देखा न जा सके किन्तु उनका आध्यात्मिक महत्त्व हो), यथा अग्निहोत्र । मेधातिथि ने स्पष्ट लिखा है कि राजनीति के नियम धर्मशास्त्र के धार्मिक ग्रन्थों के आधार पर नहीं बने हैं, प्रत्युत वे मुख्यतः सांसारिक कार्यों के अनुभवों पर आधारित हैं।
शासन-शास्त्र की एक अन्य संज्ञा है नीतिशास्त्र या राजनीतिशास्त्र (शान्तिपर्व ५६७४) । कामन्दक के नीतिसार (१६) ने उस विष्णुगुप्त को नमस्कार किया है जिसने अर्थशास्त्र-ग्रन्थों के महार्णव से नीतिशास्त्र रूपी अमत निकाला। पञ्चतन्त्र ने अर्थशास्त्र एवं नीतिशास्त्र को एक-दूसरे का पर्याय माना है। मिताक्षरा (याज्ञवल्क्य २० २१)ने अर्थशास्त्र को राजनीतिशास्त्र तथा धर्मशास्त्र का अभिन्न अंग माना है। 'राजनीति' शब्द कतिपय ग्रन्थों में आया है (रघुवंश १७।६८, भगवद्गीता,-'नीति' १०॥३८, आश्रमवासिपर्व ६।५, मनु ७।१७७, शान्तिपर्व १११।७३, १३८। ३६, ४३ एवं १६६, २६८।६ तथा द्रोणपर्व १५२।२६ आदि)। एक अन्य शब्द है नय, जिसका अर्थ है 'नीति की पद्धति'। अर्थशास्त्र (१।२) ने 'नय' एवं 'अनय' (बुरी नीति) को दण्डनीति के अन्तर्गत विवेचना करने का विषय ठहराया है। यह 'नय' शब्द कतिपय साहित्यिक ग्रन्थों में भी प्रयुक्त हआ है (किरातार्जनीय २१३, १२, ५४ एवं १३११७) ।
अब हम अर्थशास्त्र एवं धर्मशास्त्र के सम्बन्ध में कुछ चर्चा करेंगे। राजधर्म धर्मशास्त्र का महत्वपूर्ण विषय है । अर्थशास्त्र, जो मुख्यतः राजा के अधिकारों, विशेषाधिकारों एवं उत्तरदायित्वों से सम्बन्धित है, धर्मशास्त्र का ही अंग माना गया है। धर्मशास्त्र के सदश ही इसका उदगम देवी माना गया है। किन्तु जहाँ अर्थशास्त्र किसी देश के शासन के सभी स्वरूपों पर विस्तार के साथ प्रकाश डालता है, धर्मशास्त्र राजशास्त्र के प्रमख विषयों एवं अंगों पर सामान्य रूप से ही विवेचना उपस्थित करता है। जिस प्रकार कामसूत्र (१।२।१४) ने धर्म को सर्वप्रथम लक्ष्य भाना है और काम को तीनों पुरुषार्थों में सबसे हीन ठहराया है, उसी प्रकार अर्थशास्त्र ने धर्म को सबसे महत्त्वपूर्ण जीवनलक्ष्य (मूल्य) माना है। किन्तु कौटिल्य तथा अर्थशास्त्र के अन्य लेखकों ने अर्थ पर सबसे अधिक बल दिया है। धर्म एवं अर्थ से सम्बन्धित मत-भेदों में धर्मशास्त्रकारों ने धर्म को अधिक महत्त्व दिया है (आपस्तम्बधर्मसूत्र १६।२४।२३, याज्ञ० २।२१, नारद-व्यवहारमातृका १३६)। धर्मशास्त्र को स्मृति (मनु २।१०) भी कहा गया है । किन्तु
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