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________________ राजधर्म (अर्थशास्त्र या दण्डनीति) ५८१ दण्डनीति की संज्ञा मिली है और यह तीनों लोकों में छाया हुआ है।"४ शान्तिपर्व ने दण्डनीति को 'राजधर्म' से मिला दिया है (६३।२८)। कौटिल्य (१।४) ने व्याख्या उपस्थित की है--"दण्ड वह साधन है जिसके द्वारा आन्वीक्षिकी, वयी (ती वेदों) एवं वार्ता का स्थायित्व एवं रक्षण अथवा योगक्षेम होता है, जिसमें दण्ड-नियमों की व्याख्या होती हैं वह दण्डनीति है; जिसके द्वारा अलब्ध की प्राप्ति होती है, लब्ध का परिरक्षण होता है, रक्षित का विवर्धन होता है और विधित (बढ़ी हुई सम्पत्ति) का सुपात्रों में बँटवारा होता है।" इसी अर्थ से मिलती उक्ति महाभारत में भी पायी जाती है (शान्तिपर्व ६६।१०२)। नीतिसार (२०१५) का कहना है कि दम (नियन्त्रण या शासन) को दण्ड कहा जाता है, राजा को 'दण्ड' की संज्ञा इसीलिए मिली है कि उसमें नियन्त्रण केन्द्रित है, दण्ड की नीति या नियमों को दण्डनीति कहा जाता है और नीति यह संज्ञा इसलिए है कि वह (लोगों को) ने चलती है।५ शान्तिपर्व (६६। १०४) का कहना है कि दण्डनीति क्षत्रिय (राजा) का विशिष्ट व्यापार है । वनपर्व (१५०।३२) में आया है कि बिना दण्डनीति के सारा विश्व अपने बन्धन तोड़ डालेगा (और देखिए शान्तिपर्व १५।२६, ६३।२८, ६६७४) । दण्डनीति सम्पूर्ण विश्व का आश्रय है और यह देवी सरस्वती द्वारा उत्पन्न की गयी है (शान्तिपर्व १२२।२५) । 'अर्थशास्त्र' शब्द 'दण्डनीति' का पर्याय माना जाता रहा है । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।५।१०।१६) में राजा से कहा गया है कि वह धर्म एवं अर्थ में पारंगत ब्राह्मण को पुरोहित के पद पर नियुक्त करे। स्पष्ट है, आपस्तम्ब ने यहाँ धर्मशास्त्र एवं अर्थशास्त्र की ओर संकेत किया है । अनुशासनपर्व (३६१०-१५) में आया है कि बृहस्पति आदि ने अर्थशास्त्रों का प्रणयन किया था। द्रोणपर्व (६।१) ने मानवीय अर्थविद्या का उल्लेख किया है। शान्तिपर्व ने अर्थशास्त्र के पालन की बात बड़े गम्भीर शब्दों में चलायी है (७१।१४ एवं ३०२।१०६) । रामायण (२।१००।१४) में आया है कि राम के उपाध्याय सुधन्वा अर्थशास्त्र के पण्डित थे। कौटिल्य ने आरम्भ में अपने अर्थशास्त्र को सभी अर्थशास्त्रों का सार माना है और अन्त में इसे पृथिवी की प्राप्ति एवं उसके संरक्षण का साधन घोषित किया है। कौटिल्य ने दण्डनीति के जो चार प्रमुख उद्देश्य रखे हैं, यथा (१) अलब्ध की प्राप्ति,(२) लब्ध का परिरक्षण,(३) रक्षित का विवर्धन एवं (४) विवधित का सुपात्रों में विभाजन, उन्हें मनु महाराज (मनुस्मृति ७६६-१००) सदैव क्षत्रियों के समक्ष रखते हैं। यही बात शान्तिपर्व (१०२।५७, १४०१५). याज्ञवल्क्य (१।३१७), नीतिसार (१।१८) आदि में भी पायी जाती है। कौटिल्य ने अन्त में (१५।१) लिखा है--"अर्थ सम्पूर्ण मानवों का जीवन या वृत्ति है, अर्थात् मानवों से भरी हुई पृथिवी अर्थ है। वह शास्त्र, जो पृथिवी की प्राप्ति एवं संरक्षण का साधन है, अर्थशास्त्र है।" मानव अपना जीवन निर्वाह पथिवी से करते हैं और सम्पत्ति पृथिवी से ही उगती है। महाभारत एवं रामायण से (कुछ शताब्दियों) उपरान्त के लेखकों ने 'दण्डनीति' एवं 'अर्थशास्त्र' को समानार्थक माना है। दण्डी ने 'दशकुमारचरित' (८) में लिखा है कि विष्णुगुप्त ने मौर्य राजा के लिए छः सहस्र श्लोकों में दण्डनीति का प्रणयन किया, किन्तु कौटिल्य ने आरम्भ में ही अपने ग्रन्थ ४. दण्डेन नीयते चेयं दण्ड नयति या पुनः। दण्डनीतिरिति ख्याता त्रील्लोकानभिवर्तते ॥ शान्तिपर्व (५६।७८); दण्डनीतिः स्वधर्मेभ्यश्चातुर्वर्ण्य नियच्छति । प्रयुक्ता स्वामिना सम्यगधर्मेभ्यो नियच्छति ॥ शान्ति. ६६७६। ५. दमो दण्ड इति ख्यातस्तात्स्थ्याद् दण्डो महीपतिः। तस्य नोतिर्दण्डनीतिर्नयनानीतिरुच्यते ॥ नीतिसार २११५ एवं शुक्र० १११५७ । ६. देखिए जायसवाल कृत "मनु एण्ड याज्ञवल्क्य", पृ० ५, ७, १६, २५, २६, ४१, ४२, ५०, ८४ । इसमें जायसवाल ने 'मनु' एवं 'अर्थ' की व्याख्या उपस्थित की है। www.jainelibrary.org Jain Education International Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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