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धर्मशास्त्र का इतिहास
अपने युग का निर्माता कहा गया है । राजा ही स्वर्ण युग का प्रवर्तक है या देश में विपत्तियाँ, युद्ध या अशान्ति लाने वाला है ( उद्योगपर्व १३२|१६ ; शान्तिपर्व ६६ | ७६, ६१६ तथा ६, ५६।६ ; शुक्रनीतिसार ४|१|६०)३।
धर्मशास्त्र के अन्तर्गत राजधर्म एक विशिष्ट महत्त्व रखने वाला विषय तो था ही, इसीलिए सभी धर्मशास्त्रकारों ने इसका सांगोपांग विवेचन किया है, किन्तु इस विषय की महत्ता इस बात से और अधिक प्रकट हो जाती है। fe आदि काल से ही इस विषय पर पृथक् रूप से पुस्तकें आदि लिखी जाती रही हैं। शान्तिपर्व (अध्याय ५६) में आया है कि आरम्भ में कृतयुग में न तो राजा था और न दण्ड-व्यवस्था थी, जिसके फलस्वरूप मानवों में मोह, मत्सर आदि का प्रवेश हो गया । अतः धर्म को पूर्ण नाश से बचाने के लिए ब्रह्मा ने धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष (५६।३० एवं ७६ ) पर एक लाख अध्यायों वाला एक महान् ग्रन्थ लिखा । इस ग्रन्थ के नीति ( शासन - शास्त्र ) नामक भाग को शंकर विशालाक्ष ने संक्षिप्त करके दस सहस्र अध्यायों में लिखा (५६८०), जिसे वैशालाक्ष की संज्ञा मिली। पुन: इसे इन्द्र ने पढ़कर पाँच सहस्र अध्यायों में रखा और उसे बाहुदन्तक की संज्ञा दी गयी ( ५६।८३) । आगे चलकर बाहुदन्तक को बृहस्पति ने तीन सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त किया, जिसे लोगों ने बार्हस्पत्य नाम से पुकारा । पुनः बार्हस्पत्य को काव्य (उशना) ने एक सहस्र अध्यायों में रखा | कामसूत्र ( ११५-८) ने भी इसी से मिलती-जुलती एक गाथा कही है -- प्रजापति ने एक लाख अध्यायों में एक महाग्रन्थ लिखा, जिसे मनु ने धर्म - शास्त्र के रूप में, बृहस्पति ने अर्थ-शास्त्र के रूप
तथा नन्दी ने काम शास्त्र के रूप में एक-एक सहस्र अध्यायों में संक्षिप्त किया । शान्तिपर्व ( ६६।३३-७४) ने ब्रह्मा के राजधर्म का जो निष्कर्ष उपस्थित किया है वह आश्चर्यजनक ढंग से कौटिल्य के अर्थशास्त्र के प्रमुख विषयों से मेल खाता है ।
नीतिप्रकाशिका ( १।२१-२२ ) में आया है कि ब्रह्मा, महेश्वर, स्कन्द, इन्द्र, प्राचेतस मनु, बृहस्पति, शुक्र, भारद्वाज, वेदव्यास एवं गौरशिरा राजधर्म के व्याख्याता थे; ब्रह्मा ने एक लाख अध्यायों वाला राजशास्त्र लिखा, जिसे उपर्युक्त लोगों ने क्रम से संक्षिप्त किया और गौरशिरा एवं व्यास ने उसे क्रम से पाँच सौ एवं तीन सौ अध्यायों में रखा । शुक्रनीतिसार (१।२-४ ) में आया है कि ब्रह्मा ने एक लाख श्लोकों में नीतिशास्त्र लिखा, जिसे आगे चलकर वसिष्ठ तथा अन्य लोगों ने ( शुक्र ने भी ) संक्षिप्त किया ।
शासन शास्त्र के लिए कतिपय शब्दों एवं नामों का प्रयोग हुआ है । सर्वोत्तम एवं उपयुक्त नाम राजशास्त्र है जिसका प्रयोग महाभारत ने किया है। महाभारत ने बृहस्पति, भरद्वाज तथा अन्य लेखकों को "राजशास्त्र-प्रणेतारः” कहा है । नीतिप्रकाशिका ( १।२१-२२ ) ने शासन पर लिखने वाले मानव एवं देव लेखकों को "राजशास्त्राणां प्रणेतारः" की उपाधि दी है । अश्वघोष ने अपने बुद्धचरित ( १।४६ ) में इसी नाम का प्रयोग किया है। प्रो० एड्गर्टन द्वारा सम्पादित पञ्चतन्त्र के प्रथम श्लोक में मनु, बृहस्पति, शुक्र, पराशर एवं उनके पुत्र, चाणक्य तथा अन्य लोगों को नृपशास्त्र के लेखक कहा गया है । इसका एक अन्य नाम है दण्डनीति । शान्तिपर्व ( ५६ । ७६ ) ने इस शब्द का अर्थ किया है-"यह विश्व दण्ड के द्वारा अच्छे मार्ग पर लाया जाता है, या यह शास्त्र दण्ड देने की व्यवस्था करता है, इसी से इसे
२. युगप्रवर्तको राजा धर्माधर्म प्रशिक्षणात् । युगानां न प्रजानां न दोषः किन्तु नृपस्य तु । शुक्रनीतिसार
४।१।६० ।
३. यद्राजशास्त्रं भृगुरंगिरा वा न चक्रतुवंशकरावृषी तौ । तयोः सुतौ तौ च ससर्ज तुस्तत्कालेन शुक्रश्च बृहस्पतिश्च ॥ बुद्धचरित १४६ ।
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