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अध्याय १
प्रस्तावना
अति प्राचीन काल से धर्मशास्त्र के अन्तर्गत राजधर्म की चर्चा होती रही है । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।२५॥ १) ने संक्षिप्त ढंग से राजधर्म-विषयक बातों का उल्लेख किया है। महाभारत के शान्तिपर्व में विस्तार के साथ राजधर्म पर विवेचन उपस्थित किया गया है (अध्याय ५६ से १३० तक अति विस्तारपूर्वक तथा कुछ अंशों में अध्याय १३१ से १७२ तक) । मनुस्मृति ने भी सातवें अध्याय के आरम्भ में राजधर्म पर चर्चा करने की बात उठायी है। शासन की कला एवं उसके शास्त्र पर ईसवी सन् की कई शताब्दियों पूर्व से ही साहित्यिक परम्पराएँ गूंजती रही हैं और विचार-विमर्श होते रहे हैं। अनुशासनपर्व (३६८) ने बृहस्पति एवं उशना के शास्त्रों का उल्लेख किया है । शान्तिपर्व (५८।१-३) ने बृहस्पति, भरद्वाज, गौरशिरा, काव्य, महेन्द्र ,मनु प्राचेतस एवं विशालाक्ष नामक राजधर्म-व्याख्याताओं के नाम गिनाये हैं। शान्तिपर्व (१०२।३१-३२) ने शम्बर एवं आचार्यों के मतों के विरोध की ओर संकेत किया है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में पाँच सम्प्रदायों के नामों का, अर्थात्--मानवों, बार्हस्पत्यों, औशनसों, पाराशरों एवं आम्भियों का उल्लेख हुआ है; सात आचार्यों, अर्थात्--बाहुदन्तीपुत्र, दीर्घ चारायण, घोटकमुख, कणिक भारद्वाज, कात्यायन, किजल्क एवं पिशुनपुत्र के नाम एक-एक बार आये हैं (५०५ एवं १।८); भारद्वाज, कौणपदन्त, पराशर, पिशुन, वातव्याधि एवं विशालाक्ष के सिद्धान्तों की चर्चा कई बार हुई है। कौटिल्य ने आचार्यों के मतों का उल्लेख कमसे-कम ५३ बार किया है। शान्तिपर्व (१०३।४४) ने राजधर्म के एक भाष्य की ओर संकेत किया है। स्पष्ट है कि उस काल में शासन-कला एवं शासन-शास्त्र की बातें पद्धतियों का रूप पकड़ चुकी थीं। महाभारत, रामायण, मनु एवं कौटिल्य में उल्लिखित विचार बहुत दिनों से चले आ रहे थे, यथा-सप्तांग राज्य, षाड्गुण्य (सन्धि, विग्रह आदि छः गुण-विशेष), तीन शक्ति, चार उपाय (साम-दान-भेद-दण्ड), अष्टवर्ग एवं पंचवर्ग (मनु ७।१५५), १८ तथा १५ तीर्थ (शान्तिपर्व ५॥३८) आदि के नाम रूढि बन चुके थे (अयोध्याकाण्ड १००।६८-६६)।
राजधर्म को सभी धर्मों का तत्त्व या सार कहा गया है (शान्तिपर्व १४१।६-१०, ५६॥३)।' राजा के कर्तव्यों की ओर कतिपय धर्मशास्त्र-ग्रन्थों में प्रभूत संकेत मिलते हैं (देखिए गौतम १०१७-८, आपस्तम्बधर्मसून २।५।१०।१३१६, वसिष्ठ १६।१-२, विष्णु ३।२-३, नारद-प्रकीर्णक ५-७ एवं ३३-३४, शान्तिपर्व ७७।३३ एवं ५७।१५, मत्स्यपुराण २१५२६३, मार्कण्डेयपुराण २७।२८ एवं २८/३६)। इन ग्रन्थों के अवलोकन से पता चलता है कि राजधर्म विश्व का सबसे बड़ा उद्देश्य था और इसके अन्तर्गत आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त आदि के सभी नियम आ जाते थे। राजा को
१. एवं धर्मान् राजधर्मेषु सर्वान् सर्वावस्थं संप्रलोनान्निबोध । 'सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्ताः सर्वे लोका राजधर्मे प्रविष्टाः । सर्वे धर्मा राजधर्मप्रधानाः। शान्तिपर्व ६३३२५, २६, २६ राजमूला महाभाग योगक्षेमसुवष्टयः । प्रजासु व्याधयश्चैव मरणं च भयानि च ॥ कृतं त्रेता द्वापरं च कलिश्च भरतर्षभ । राजमूला इति मतिर्मम नास्त्यत्र संशयः।। शान्ति० (१४१६-१०); सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्मः परायणम् । शान्ति० (५६१३) ।
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