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अध्याय २० वेतनस्यानपाकर्म, अभ्युपेत्याशुश्रूषा एवं स्वामिपालविवाद इस अध्याय में वेतन पर रखे गये भृत्यों (नौकरों) का पारिश्रमिक देने या न देने के विषय में चर्चा होगी। बृहस्पति ने इस विषय में अभ्युपेत्याशुश्रूषा, वेतनस्यानपाकर्म एवं स्वामिपालविवाद के प्रश्नों को उठाया है।' मनु एवं कौटिल्य ने इनमें प्रथम की चर्चा नहीं की है। यहाँ वेतनस्यानपाकर्म की चर्चा सबसे पहले की जायगी और बाद को अन्य दो की पृथक्-पृथक चर्चा होगी। ये तीनों स्वामियों एवं नौकरों या नियोजकों एवं नियक्तों से सम्बन्ध रखते हैं। नौकरी की अवधियों एवं पारिश्रमिकों तथा उनसे सम्बन्धित कार्यों के विषय में विभिन्न नियम बने हुए हैं। ये नियम ईसापूर्व छठी शताब्दी से लेकर ईसा के उपरान्त पाँचवीं शताब्दी तक की कालावधि में बिखरे पड़े हैं (अर्थात गौतम एवं आपस्तम्ब से लेकर बृहस्पति एवं कात्यायन तक)। इन नियमों में स्वामियों एवं नौकरों के उत्तरदायित्वों का वर्णन है।
नारद (६२) के मत से पहले से निश्चित पारिश्रमिक कार्य करने के आरम्भ में, मध्य में या अन्त में दिया जा सकता है। किन्तु यदि पहले से कुछ तय न पाया हो तो नारद (६३), याज्ञ० (२।१६४)एवं कौटिल्य (३।१३) के अनुसार व्यापारी के प्रतिनिधि, ग्वाला एवं कर्षक को क्रम से लाभ, दूध एवं अन्न का दशांश मिलना चाहिए। स्मृतिचन्द्रिका (२,२०१) के मत से यह नियम तभी लागू होता है जब कि अन्न सरलता से उत्पन्न हो जाता है। किन्तु बृहस्पति का कथन है कि यदि नियोजक नौकर को भोजन-वस्त्र देता है तो पारिश्रमिक निश्चित न रहने पर कर्षक नौकर को अन्न का पांचवाँ भाग तथा जिसे भोजन-वस्त्र नहीं मिलता उसे तिहाई भाग मिलता है। यदि वेतन या पारिश्रमिक पूर्व से निश्चित न हो तो वृद्ध-मनु के मत से कुशल व्यापारियों (यदि विवाद व्यापार से सम्बन्धित है) की सम्मति से काल, स्थान एवं उद्देश्य के अनुसार उसे तय करना चाहिए। यदि पारिश्रमिक या वेतन पूर्व से निश्चित भी हो तो कुछ बातों में कुछ कम या अधिक दिया जा सकता है, यथा--यदि भृत्य काल एवं स्थान से सम्बन्धित नियमों का उल्लंघन करे जिससे घाटा हो जाय तो कम तथा यदि अधिक लाभ हो जाय तो अधिक दिया जा सकता है (याज्ञ० २११६५) ।
___ यदि दो या इससे अधिक भृत्य रोग या किसी अन्य कारण से काम करें तो मध्यस्थ द्वारा तय करके कार्य के अनुरूप वेतन दिया जाना चाहिए, और यदि सम्पूर्ण कार्य समाप्त हो जाय तो सम्मिलित रूप से (याज्ञ. २११६६) । काम करने के बरतन, औजार आदि की रक्षा अपने बरतनों के समान ही करनी चाहिए, ऐसा न
१. अदेयादिकमाख्यातं भूतानामुच्यते विधिः । अशुश्रूषाभ्युपेत्येतत्पदमादौ निगद्यते ॥ वेतनस्यानपाकम तदनु स्वामिपालयोः । क्रमशः कथ्यते वादो भृतभेदत्रयं त्विदम् ॥ बृहस्पति (विवादरत्नाकर पृ० १३६, विवादचिन्तामणि पृ० ४१)।
२. भक्ताच्छादभृतः सीराद् भागं गणीत पञ्चमम् । जातसस्यात् त्रिभागं तु प्रगृह्णीयादथाभृतः॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०२, व्यवहारप्रकाश पृ० २३४ एवं सरस्वतीविलांस पृ० २६८)।
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