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वेतन, मजदूरी, भाड़े का निर्णय; संराधन
७६६ करने पर पारिश्रमिक में कटौती हो सकती है (नारद६४)। यदि नौकर पारिश्रमिक ले लेने के उपरान्त कार्य करने के योग्य होने पर भी कार्य न करे तो उसे वह लौटाना पड़ता है और उसका दूना दण्ड देना पड़ता है । इसी प्रकार यदि पारिश्रमिक न भी मिला हो किन्तु भृत्य बिना किसी कारण के कार्य न करे तो उसे पारिश्रमिक के अनुरूप दण्ड देना पड़ता है (याज्ञ० २।१६३, नारद ६५ एवं बृहस्पति) । कौटिल्य (३।१४) के मत से काम करने का प्रण करके तथा वेतन पाकर यदि भूतक उसे सम्पादित न करे तो उसे १२ पण का दण्ड देना पड़ता है और कार्य करना पड़ता है । ३ और देखिए नारद (६५), कात्यायन (६५७), वृद्ध-हारीत, मनु (८-२१५, २१७), बृहस्पति, मत्स्यपुराण (२२७।६) आदि, जहाँ अर्थ-दण्ड के विभिन्न नियम दिये गये हैं। यदि भृतक बीमार हो या संकट-ग्रस्त हो तो उसको छूट दी जा सकती है अथवा वह अपना प्रतिनिधि दे सकता है (कौटिल्य ३।१४) । आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।११।२८।२-४) के मत से यदि नौकर, कर्षक या ग्वाला काम न करे तो उसे शरीर-दण्ड देना चाहिए और पश आदि छीन लेना चाहिए। किन्तु इस नियम का आगे चलकर बहिष्कार हुआ। कौटिल्य (३।१३) का कथन है कि यदि स्वामी या नियोजक वेतन न दे तो उस पर छ: पण का, या उचित पारिश्रमिक के दसवें भाग का या पूर्वनिश्चित वेतन का अर्थ-दण्ड लगता है। यदि भृतक वेतन ले लेने पर न पाने का अभियोग लगाये तो उस पर १२ पण का या वेतन के पाँचवें भाग का अर्थ-दण्ड लगता है। कौटिल्य (३।१४) का कथन है कि समझौता हो जाने पर अवधि के भीतर स्वामी को न तो दूसरा नौकर रखना चाहिए और न नौकर को दूसरा स्वामी।
याज्ञ० (२।१६७), नारद (६६), कात्यायन (६५६), विष्णु० (५।१५५-१५६) के मत से यदि ढोनेवाले की असावधानी से (देवसंयोग या राजा के कारण नहीं) सामान नष्ट हो जाय या खराब हो जाय तो उसे हरजाना देना पड़ता है। वृद्ध-मन का कथन है कि यदि असावधानी के कारण नौकर से सामान नष्ट हो जाय तो सामान का मूल्य देना पड़ता है, किन्तु यदि द्रोह से नष्ट हो जाय तो दूना मूल्य देना पड़ता है। अन्य समझौतों के लिए देखिए याज्ञ० (२।१६७), नारद (६८), कात्यायन (६५८), वृद्ध-मनु (विवाद रत्नाकर पृ० १६३)।
यदि किसी अवधि के भीतर कार्य समाप्त करने के समझौते के आधार पर एक बार ही वेतन लेना निश्चित करके भृतक पहले ही काम छोड़ देता है तो वह वेतन से हाथ धो बैठता है, किन्तु यदि स्वामी की झिड़कियों के फलस्वरूप (अपना दोष न रहने पर) वह कार्य करना छोड़ देता है तो उसे जितना कार्य हो गया है उसके अनुरूप वेतन मिल जाता
३. गृहीतवेतनः कर्म न करोति यदा भृतः। समर्थश्चेत् दमं वाप्यो द्विगुणं तच्च वेतनम् ।। बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ. २०२, विवादरत्नाकर पृ० १५६); कर्मारम्भं तु यः कृत्वा सिद्धं नैव तु कारयेत् । बलात्कारयितव्योऽसावकुर्वन वण्डरमहति ॥ कात्यायन ६५७ (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०३, विवादरत्नाकर पृ० ११०); गृहीत्वा वेतनं कर्माकुर्वतो भूतकस्य द्वादशपणो दण्डः । संरोधश्चाकारणात् । अर्थशास्त्र (३।१४)।
४. वेतनावाने दशबन्धो दण्डः षट्पणो वा। अपव्ययमाने द्वादशपणो दण्डः पञ्चबन्धो वा । अर्थशास्त्र (३।१३)।
५. भाण्डं व्यसनमागच्छद्यदि वाहकदोषतः । स दाप्यो यत्प्रणष्टं स्यादेवराजकृतादृते ॥ नारद (६६);न तु बाप्यो हृतं चौरर्वग्धमूढं जलेन वा। कात्यायन (६५७, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ. २०३, अपरार्क पृ० ७६६, सरस्वतीविलास पृ० ३००)। प्रमादानाशितं दाप्यः समद्विोहनाशितम् । वृद्ध-मनु (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०३, विवावरत्नाकर पृ० १६२) ; तदोषेण यद्विनश्येत् तत्स्वामिने । अन्यत्र दैवोपघातात् । विष्णुधर्मसूत्र (५।१५५-१५६); विघ्नयन् वाहको बाप्यः प्रस्थाने द्विगुणं दमम । कात्यायन (६५८, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २०३, पराशरमाधवीय ३, पृ० ३२७) ।
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