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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास जो ऐसा करते हैं वे पापी होते हैं । और देखिए मनु (६७ = नारद ७७), वसिष्ठ (८.१०), याज्ञ० (१११२४), विष्णु० (५६८)। नारद (916) के मत से दत्त दान सात प्रकार के हैं। दत्त वे हैं जिन्हें लौटाया नहीं जा सकता तथा जिन पर देनेवाले का पूर्ण अधिकार है और जो देय माने गये हैं। ये हैं क्रीत वस्तुओं का मूल्य, पारिश्रमिक, आनन्दोत्सव (नृत्य, संगीत, मल्लयुद्ध) के लिए जो दिया जाय, स्नेह-दान, श्रद्धा-दान, वधू के सम्बन्धियों को दिया गया धन, आध्यात्मिकता या दानशीलता के उपयोग का धन । बृहस्पति के अनुसार दत्त धन आठ प्रकार के हैं। नारद (७।६-११) ने अदत्त (जो न्यायानुकूल न हो) दान के १६ प्रकार किये हैं, जिनके विषय में हमने इस ग्रन्थ के दूसरे भाग में पढ़ लिया है। और देखिए कात्यायन (६४७) । अदेय एवं अदत्त में अन्तर यह है कि प्रथम प्रकार में वजित होने के कारण वे दान हैं जो पूर्णरूपेण अवैध हैं, दूसरे प्रकार (अदत्त ) में वे दान हैं जो परित्यक्तव्य हैं और दाता के आवेदन पर न्यायालय द्वारा निषिद्ध ठहराये जा सकते हैं, क्योंकि वे दाता की अयोग्यता के परिणाम मात्र हैं; यथा---उन्मत्तता, पागलपन, वृद्धता, अल्पवयस्कता, त्रुटि आदि के कारण। कात्यायन (६४६) एवं कौटिल्य {३।१३) का कथन है कि यदि प्राण-संशय में कोई व्यक्ति अपने रक्षक को सम्पूर्ण सम्पत्ति दान कर देता है तो वह आगे चलकर दक्ष लोगों की मम्मति से केवल पुरस्कार मात्र देकर अपने पूर्व प्रण को तोड़ सकता है। ___कात्यायन (६५०-६५१) ने उत्कोच (धूस) को निम्न रूप से व्यक्त किया है; किसी व्यक्ति को चोर या आततायी कहकर प्रत्युत्तर देने के द्वारा, या किसी को व्यभिचारी कहकर, या बदमाशों की ओर संकेत कर या किसी के विषय में भ्रामक अफवाह उड़ाकर जो धन लिया जाय वह उत्कोच है। कात्यायन ने आगे कहा है कि घस लेनेवाले को दण्डित नहीं करना चाहिए, बल्कि मध्यस्थ को दण्डित करना चाहिए। यदि घुस लेनेवाला राजाका कर्मचारी हो तो उसे घूस लौटानी पड़ती है और उसका ग्यारह गुना अर्थ-दण्ड देना पड़ता है। यदि कोई राजकर्मचारी न होते हुए घूस (उत्कोच) लेता है तो उसे दण्डित नहीं किया जाता, क्योंकि उसे जो कुछ मिलता है वह पुरस्कार या कृतज्ञता-प्रकाशन के रूप में मिलता है। हारीत का कथन है कि प्रतिश्रुत होने पर यदि दान नहीं दिया जाता तो नरक में गिरना होता है और इस लोक एवं परलोक में ऋणी बनकर रहना पड़ता है । अतः राजा को चाहिए कि वह प्रण-कर्ता को प्रतिश्रुत दान देने को उद्वेलित करे और ऐसा न करने पर उसे दण्डित करे।५ कात्यायन (६४२) का कथन है कि यदि कोई वाहह्मण को दान देने का वचन देकर उसे पूरा न करे तो वह दान ऋण रूप में देना पड़ता है, और यदि कोई किसी धार्मिक कार्य के लिए निरोग या रुग्ण अवस्था में दान करने का वचन देता है, किन्तु उसे पूरा करने के पहले ही मर जाता है तो उसके पुत्र या उत्तराधिकारी को वह देना पड़ना है (५६६) । स्पष्ट है, प्राचीन न्यायालयों द्वारा ब्राह्मणों एवं धार्मिक कृत्यों के लिए किये गये दान ४. भृत्या तुष्ट्या पण्यमूल्यं स्त्रीशुल्कमुपकारिणे । श्रद्धानुग्रहणं प्रीत्या दत्तमष्ट विधं विदुः ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६३)। ५. प्रतिश्रुतार्थादानेन दत्तस्याच्छेदनेन च । विविधान्नरकान याति तिर्यग्योनौ च जायते ।। वाचैव यत्प्रतिज्ञातं कर्मणा नोपपादितम् । ऋणं तद्धर्मसंयुक्तमिहलोके परत्र च ॥ हारीत (व्यवहारप्रकाश पृ० ३१०, विवादचन्द्र पृ० ३६, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६२)। ६, स्वेच्छया यः प्रतिश्रुत्य ब्राह्मणाय प्रतिग्रहम् । न दद्यादृणवदाप्यः प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम् ॥ कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६२, सरस्वतीविलास पृ० २८५, व्यवहारप्रकाश पृ० ३१०); स्वस्थेनातन वा देय श्राक्तिं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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