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________________ अध्याय १६ दत्तानपाकर्म इस अध्याय के शीर्षक को दत्ताप्रदानिक भी कहा जाता है । नारद (७।१) ने इसकी यह परिभाषा दी है कि जब कोई व्यक्ति कुछ देने के उपरान्त उसे पुनः लौटा लेना चाहता है, क्योंकि उसने ऐसा करके नियम का अतिक्रमण किया था (अर्थात् वह कार्य न्यायानुकूल न होने के कारण अनुचित था) तो इसे दत्तानपाकर्म कहा जाता है ।' नारद (७।२) ने इसे चार भागों में बाँटा है--(१) जा न दिया जा सके, (२) जो दिया जा सके, (३) जो देना न्यायानुकूल हो तथा (४) जो देना न्यायानुकूल न हो । नारद (७।३-५) एवं बृहस्पति के मत से निम्न आठ वस्तुएं नहीं दी जा सकती (अवेय)--अन्वाहित, धरोहर, याचितक, निक्षेप, साझे की सम्पत्ति, पुत्र एवं स्त्री, सन्तान वालों की सम्पूर्ण सम्पत्ति तथा प्रतिश्रुत वस्तु । अधिक विस्तार के लिए देखिए कौटिल्य (३।१६), याज्ञ० (२।१७५) एवं कात्यायन (६३८)। ये वस्तुएँ नहीं दी जा सकती, क्योंकि इन पर सम्पूर्ण अधिकार नहीं रहता और इनका दान ऋषियों द्वारा वजित है । पुत्र एवं पत्नी नहीं दी जा सकती, क्योंकि स्मृतियों ने यह वजित किया है। जो देय है उसके विषय में सामान्य नियम याज० (२।१७५), नारद (७।६), बहस्पति एवं कात्यायन (६४२) ने दिये हैं--जो सम्पत्ति अपनी है, कुटुम्ब के भरण-पोषण का अंश छोड़कर, उसको दिया जा सकता है । ३ मन (६६-१०), नारद (६), बृहस्पति ने उन लोगों की भर्त्सना की है जो अन्य लोगों के प्रति दयाशो ल होने के लिए अपने कुटुम्ब या नौकरों को निर्धन बना देते हैं। १. मेधातिथि (मनु ८।२१४) ने लिखा है--'अपक्रिया क्रियापायः तस्य तत्राप्रतिषेधः । दानमेवं न चलितं भवति । एषव दाने स्थितिरिति यावत् । कथं प्रतिश्रुत्यादीयमाने धर्मो न नश्यतीति नैषा शंका कर्तव्या। एष एवात्र धर्मो यन्न बीयते दत्तं च प्रत्यादीयते।' अतः इसके अनुसार दत्तस्यानपाकर्म का तात्पर्य है-जो कुछ दिया गया है या दिये जाने के लिए प्रतिश्रुत-सा है उसका उचित आदान या अपहरण : मिताक्षरा (यान० २११७५) ने वत्ताप्रदानिक तथा वत्तानपाकर्म को भी व्याख्या की है--'दत्तस्य अप्रदान पुनहरणं यस्मिन्दानाख्ये तद् दत्ताप्रदानिक नाम व्यवहारपदम् ।......दत्तस्य अनपाकर्म अपुनरादानं यत्र दानाख्ये विवादपदे तदत्तानपाकर्म ।' इसके अनुसार दत्तानपाकर्म का तात्पर्य यह है-वह जिसमें जो दिया गया है पुनः नहीं लौटाया जा सकता, क्योंकि दान न्यायानुकूल है (इसका विपरीत अर्थ भी स्पष्ट है)। ____२. सर्वस्वं पुत्रदारमात्मानं प्रदायानुशयिनः प्रयच्छेत । अर्थशास्त्र (३।१६) । सामान्यपुत्रदाराधिसर्वस्वन्यासयाचितम् । प्रतिश्रुतं तथान्यस्यत्यदेयं त्वष्टधा स्मृतम् ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १८६, व्यवहारप्रकाश पृ० ३०६), नारद (७।४-५) एवं दक्ष (३।१६-२०)। ३. सर्वस्वं गृहवर्ज तु कुटुम्बभरणाधिकम् । यद् द्रव्यं तत्स्वकं देयमदेयं स्यादतोन्यथा ।। कात्यायन ६४० (पराशरमाधवीय २१४, पृ० ३, विवादरत्नाकर पृ० १२६, सरस्वतीविलास पृ० २८३) । कात्यायन ने उस मनुष्य को, जिसके पास एक ही घर हो, घर बेचने से मना किया है। www.jainelibrary.org For Private & Personal Use Only Jain Education International
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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