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________________ ७६४ धर्मशास्त्र का इतिहास प्रकार किये हैं--(१) वह जो पुश्तैनी हो और यज्ञ करनेवाले के पूर्वजों द्वारा पूजित हो, (२) वह जो यज्ञ करनेवाले द्वारा नियुक्त हो तथा (३) वह जो मित्रतावश अपने से ही धार्मिक कृत्य कर दे । यदि पुरोहित दोषरहित यजमान को छोड़ देता है या यजमान दोषरहित पुरोहित का परित्याग करता है तो दोनों को दण्ड मिलता है, किन्तु तीसरे प्रकार के पुरोहितों के साथ यह नियम नहीं लागू होता । इस विषय में और देखिए शंख-लिखित (विवादरत्नाकर पृ० ११७ एवं १२०-१२१), स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० १८८) एवं व्यवहारनिर्णय (पृ० २८४-२८५) । कौटिल्य (३।१४) ने भी नियम दिये हैं। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि प्राचीन कल्पसूत्रों के काल में लौकिक कार्यों के साक्षियों की महत्ता कम थी। यही बात मनुस्मृति के काल तक भी पायी जाती है, जहाँ मनु ने यज्ञों की दक्षिणा के विभाजन को लौकिक समवेत कार्यों तक विस्तारित किया है। याज्ञवल्क्य (२।२६५) ने व्यापारियों के सामान्य नियमों को पुरोहितों, कृषकों, शिल्पकारों (बढ़इयों, नर्तकों आदि) तक बढ़ाया है। स्पष्ट है कि याज्ञवल्क्य के समय में जटिल यज्ञ बहुत कम होते थे और तब व्यापारियों एवं शिल्पियों के सम्भूयसमुत्थान बहुत महत्त्व रखने लग गये थे। ६. ज्योतिष्टोम जैसे पूत यज्ञों में चार प्रमुख पुरोहित होते थे (होता, अध्वर्यु, उद्गाता एवं ब्रह्मा) और उनमें प्रत्येक के तीन सहायक पुरोहित होते थे। यदि १०० गौएँ दक्षिणा में मिली हों तो प्रत्येक चार प्रमुख पुरोहितों को १२-१२ गौएँ मिलती थीं । प्रथम चार सहायकों को, जिन्हें 'अधिनः' कहा जाता है (यथा--मंत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणाच्छंसी एवं प्रस्तोता),४८ को आधी अर्थात् २४ (प्रत्येक को ६) गौएँ मिलती थीं। बाव के चार पुरोहितों को, जिन्हें 'तृतीयिनः' कहा जाता है, १६ अर्थात प्रत्येक को चार गोएँ मिलती थीं और ये चार पुरोहित थे, अच्छावाक, नेष्टा, आग्नीध्र एवं प्रतिहर्ता । अन्तिम चार पुरोहितों को जिन्हें 'पादिनः' कहा जाता है (ग्रावस्तुत, उन्नेता, पोता, सुब्रह्मण्य), १२ गौएँ (प्रत्येक को तीन) मिलती थीं। और देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० २।२६५, कुल्लूक (मनु० ८।२१०), विवादरत्नाकर (पृ० ११६) एवं व्यवहारप्रकाश (पृ० ३०१) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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