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________________ सहकारिता या साझेदारी के नियम उत्पन्न होता है कि किसी ने वञ्चना या कपटाचरण किया है तो उसे किसी विशिष्ट शपथ या दिव्य की शरण लेनी पड़ती है। याज्ञ ० (२।२६०), नारद (६।५) एवं बृहस्पति का कथन है कि जब कोई अनधिकृत रूप से या बिना किसी सलाह-मशविरे के अज्ञानवश कोई ऐसा कार्य कर बैठता है जिससे हानि होती है , तो उसे हरजाना देना पड़ता है। यदि कोई साझेदार दुर्दैव, राजा या चोरों आदि से साझे के सामान की रक्षा करता है, तो उसे विशेष पुरस्कार उसके विशिष्ट अंश के रूप में दिया जाता है, जो बचायी गयी सम्पत्ति के दसवें भाग के रूप में होता है (याज्ञ० २।२६०; कात्यायन ६३१; नारद ६.६)। यदि कोई साझेदार दुष्टता करे या छल-प्रपंच करे तो बिना लाभांश दिये उसे साझे से पृथक् किया जा सकता है । यदि कोई साझेदार स्वयं कार्य न कर सके तो वह तीसरे द्वारा साझे में कार्य करा सकता है (याज. २।२६५)। याज्ञ० (२।२६४) एवं नारद (६।७ एवं १७-१८) के मत से यदि कोई साझेदार विदेश चला जाता है और मर जाता है तो उसका भाग उसके उत्तराधिकारियों (पुत्र आदि) या सम्बन्धियों या सजातियों को दिया जा सकता है। यदि कोई उत्तराधिकारी अधिकार न जताये तो दस वर्षोतक प्रतीक्षा करने के उपरान्त उसका भाग स्वय साझेदार ले सकते हैं और उनके ऐसा न करने पर स्वयं राजा उसे प्राप्त कर सकता है। कात्यायन (६३२) का कथन है कि शिल्पयों के साझे में जो नयी विधियों के नियामक होते हैं उन्हें चार भाग, जो दक्ष या कुशल होते हैं उन्हें तीन भाग, जो आचार्य होते हैं उन्हें दो भाग तथा जो शिष्य होते हैं उन्हें एक भाग मिलता है। बृहस्पति के मत से नर्तकों, संगीतज्ञों, गायकों में संगीतज्ञों को बराबर भाग मिलता है, केवल लय मिलाकर बाजा बजाने वालों को आधा भाग मिलता है। इसी प्रकार किसी भवन या मन्दिर के निर्माण में राजा को दो भाग मिलते हैं। शिल्पी उनको कहते हैं जो सोना, चाँदी, सूत, लकड़ी, पत्थर, खाल आदि से सामान बनाते हैं या ६४ शिल्प-कलाओं में किसी एक के आचार्य हैं। यदि राजा ने अपने प्रजाजनों में कुछ लोगों के दल को शत्-देश में जाकर लूटपाट करने की आज्ञा दी हो तो राजा को लूट के धन का छठा भाग (बृहस्पति), शेष के चार भाग को तीन भाग, अधिक योग्य लोगों को दो भाग तथा अन्यों को एक भाग मिलता है। यदि कोई पकड़ा जाय तो उसे छुड़ाने में जो व्यय होता है उसे सबको वहन करना पड़ता है (विवादरत्नाकर पृ० १२५, कात्यायन ६३३-६३५) । यदि व्यापारियों, कृषकों, चोरों एवं शिल्पियों में पहले से कोई समझौता न हुआ हो तो वे परस्पर निर्णय कर सकते हैं। यह एक मनोरंजक बात है कि गौतम, आपस्तम्ब एवं बौधायन आदि प्राचीन सूत्रकारों ने सम्भूयसमुत्थान के विषय में कुछ नहीं लिखा है । मनु (८।२०६-२११) ने पुरोहितों की दक्षिणा के विभाजन के विषय में नियम बनाये हैं और लिखा है कि अन्य साझ के कार्यों में भी ये ही नियम लागू होते हैं, यथा--प्रत्येक को उसकी महता एवं कार्य-परिमाण के अनुसार मिलना चाहिए । पुरोहितों की दक्षिणा के विषय में मनु ने विस्तार के साथ नियम दिये हैं जिन्हें हम यहाँ नहीं लिख रहे हैं । नारद (६।१०) एवं बृहस्पति (विवादरत्नाकर पृ० १२०) ने पुरोहितों के तीन ६. चोरतः सलिलादग्नेर्द्रव्यं यस्तु समाहरेत । तस्यांशो दशमो देयः सर्वद्रव्येष्वयं विधिः।। कात्यायन ६३१ (पराशरमाधवीय ३, ३०५ एवं विवादरत्नाकर पृ० ११४) । ७. शिष्यकामिजकुशला अचार्याश्चेति शिल्पिनः । एकद्वित्रिचतुर्भागान् हरेयुस्ते यथोत्तरम् ॥ कात्यायन ६३२ व्यवहारमयूख पृ० २०१, अपरार्क पृ० ८३८, विवादरत्नाकर पृ० १२४)। ८. हिरण्यरूप्यसूत्राणां काष्ठपाषाणचर्मणाम् । संस्कर्ता च कलाभिज्ञः शिल्पी चोक्तो मनीषिभिः ॥ बहस्पति (विवावरत्नाकर पृ० १२३, व्यवहारप्रकाश पृ० ३०४) । २८ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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