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________________ अध्याय १८ सम्भूय-समुत्थान' (साझेदारी, सहकारिता) जब अनेक व्यापारी अथवा अन्य लोग (यथा अभिनेता, संगीतज्ञ या शिल्पकार आदि) परस्पर मिलकर कोई व्यापार करते हैं तो वह कार्य या व्यवसाय सहकारिता, सम्भूयकारिता या सम्भूयसमुत्थान की संज्ञा पाता है (नारद ६।१ एवं कात्यायन ६२४)। बृहस्पति का कथन है कि कुलीन, दक्ष, अनलस, प्राज्ञ, नाणकवेदी (सिक्कों की जानकारी रखने वाले),आय-व्ययज्ञ, शुचि (ईमानदार), शूर (साहसी होकर व्यापार करनेवाले) व्यक्तियों के साथ साझा करना चाहिए, न कि इनके विपरीत लोगों के साथ। भले ही ये समस्त गुण सब में विद्यमान न हों किन्तु कुछ गुणों का होना सम्भूय-समुत्थान के लिए आवश्यक है। आय, व्यय, हानि, लाभ, परिश्रम के आधार पर ही जिसने सोना, अन्न या पेय पदार्थ दिया हो उसके आधार पर बँटवारा होना चाहिए (बृहस्पति--स्मृति चन्द्रिका २, पृ० १२५; व्यवहारप्रकाश पृ० २०८; अपरार्क पृ० ८३२) । प्रत्येक साझेदार का यह कर्तव्य है कि वह अन्य साझेदारों के साथ चाहे वे उपस्थित हों या अनुपस्थित, खरीद-फरोख्त (क्रय-विक्रय) में ईमानदारी बरते। बृहस्पति का कथन है कि अन्य लोगों द्वारा अधिकृत होने पर एक साझेदार जो कुछ सम्पत्ति बेचता है या परिवर्तित करता है या जो कुछ प्रमाण या लेख-पत्र लेन-देन के रूप मे कार्यान्वित करता है वह सभी साझेदारों द्वारा किया हुआ माना जाता है; किसी संदिग्ध परिस्थिति में स्वयं साझेदार ही आपस में निर्णय करते हैं और धोखाधड़ी या कपटाचरण में निपटारा करते हैं । ५ जब यह सन्देह १. 'सम्भूय' शब्द 'सम्' के साथ 'भू' से बना है, जिसका तात्पर्य है "एक साथ होना"। 'समुत्थान' का तात्पर्य है "व्यवसाय या व्यापार या कर्म" । अतः दोनों का सम्मिलित अर्थ हुआ वह कार्य या व्यापार या व्यवसाय जिसमें साझा (परिश्रम, धन या दोनों) हो। १. समवेतास्तु ये केचिच्छिल्पिनो वणिजोऽपि वा। अविभज्य पृथग्भतैः प्राप्तं तत्र फलं समम् ।। कात्यायन (६२४, अपरार्क प०८३२ एवं पराशरमाधवीय ३,१०३०४)। ___३. कुलीनदक्षानलसैः प्राजर्नाणकवेदिभिः । आयव्ययज्ञैः शुचिभिः शूरैः कुर्यात्सहक्रियाम् ॥ अशक्तालसरोगार्तमन्दभाग्यनिराश्रयः । वाणिज्याद्या सहैतैस्तु न कर्तव्या बुधः क्रिया ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १८४, अपरार्क पृ० ८३१-८३२)। ४. समक्षमसमक्षं वाऽवञ्चयन्तः परस्परम् । नानापण्यानुसाराते प्रकुर्युः कयविक्रयौ ॥ व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १८५, अपरार्क पृ० ८३२) । ५. बहूनां संमतो यस्तु दद्यादेको धनं नरः । करणं कारयेद्वापि सर्वैरपि कृतं भवेत् ।। परीक्षकाः साक्षिणस्तु त एवोक्ताः परस्परम् । सन्दिग्धेर्थे वञ्चनायां न चेद्विद्वेषसंयुताः ।। यः कश्चिद्वञ्चकस्तेषां विज्ञातः क्रयविक्रये । शपथः सोपि शोध्यः स्यात् सर्ववादेष्वयं विधिः ।। बृहस्पति (व्यवहारमयूख पृ० २००, विवादरत्नाकर पृ० ११३, व्यवहार• प्रकाश पृ० २६६) । इसका तात्पर्य यह है कि जब कोई साझेदार कोई विरोध उपस्थित करता है तब वह बहुमत से निर्णीत होता है, मानो अपने व्यापार में सभी साझेदार न्यायाधीश हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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