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धर्मशास्त्र का इतिहास
लौटानी पड़ती है ।" यदि विक्रेता विदेश चला गया हो तो उसे उपस्थित करने के लिए क्रेता को पर्याप्त समय देना चाहिए ( कात्यायन ६१५ ) | अपने अपराध से बरी होने के लिए क्रेता को चाहिए कि वह विक्रेता को उपस्थित करे, ऐसा न करने पर उसे यह सिद्ध करना चाहिए कि उसने खुले बाजार में खरीद की थी (मनु ८२०२, बृहस्पति कात्यायन ६१५, ६१८-६१६) । यदि वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसे वस्तु के स्वामी को मूल्य तथा राजा को अर्थ दण्ड देना पड़ता है । मनु (८१६८) ने लिखा है कि विक्रेता स्वामी के कुटुम्ब का हो किन्तु वस्तु का स्वामी न हो तो उस पर ६०० पणों का दण्ड लगता है, किन्तु यदि विक्रेता वस्तु के स्वामी से सम्बन्धित न हो तो उसे चोर समझा जाता है। यही बात उस विक्रेता के साथ भी लागू होती है जो अज्ञानवश या गलती से किसी की वस्तु बेचता है और जो पूरी जानकारी के साथ ऐसा करता है । जो व्यक्ति अपनी अस्थावर सम्पत्ति खो देता है और पानेवाले से माँगता है, तो उसे नाष्टिक कहा जाता है | नाष्टिक शब्द नष्ट (जो खो गया हो ) से बना है ( कौटिल्य ३|१६ मनु ८।२०२; कात्यायन ६१४ ) । बात यह है कि जब कोई बहुत से व्यक्तियों के समक्ष चोरी का सामान खरीदता है और पता चलने पर लौटा देता है तो उस पर अपराध नहीं लगता। जिसकी वस्तु इस प्रकार नष्ट हो जाती है उसे प्रमाण के साथ सिद्ध करना पड़ता है कि उसने उसे कभी बेचा नहीं; इसी प्रकार क्रेता को भी सिद्ध करना पड़ता है कि उसने अमुक व्यक्ति से उचित मूल्य देकर वह वस्तु खरीदी थी ( कात्यायन ६१३ एव याज्ञ० २।१७० ) । ऐसा करने पर क्रेता अपराध से बरी हो जाता है। और उसे क्रीत वस्तु वास्तविक स्वामी को लौटानी पड़ती है।
कात्यायन (६१६) का कथन है कि अस्वामिविक्रय में साक्षियों एवं सम्बन्धियों के प्रमाणों के अतिरिक्त किसी अन्य मानुष या दैविक प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । व्यवहारप्रकाश ( पू० २०३) के मत से अस्वामिविक्रय में अन्य प्रमाण, यहाँ तक कि दिव्य (आर्डियल) भी उपयुक्त हो सकता है। किन्तु स्मृतिचन्द्रिका (२, पृ० २१६ ) एवं मदनरत्न
कात्यायन की बात को ही मान्यता दी है । यदि स्वामी अपने नष्ट सामान के अधिकार को सिद्ध नहीं कर पाता तो उस पर अर्थ - दण्ड लगता है, जो वस्तु के मूल्य के पाँचवें भाग तक जा सकता है । कात्यायन ( ६२० ) एवं कौटिल्य ( ३।१६) ने ऐसे व्यक्तियों को चोर कहा है, जिससे अन्य लोग इस प्रकार के असत्य व्यवहार से दूर रहें। कौटिल्य (३।१६) एवं याज्ञ० (२।१६६ ) के मत से यदि स्वामी अपनी वस्तु किसी अन्य के पास देखे तो उसे राजकर्मचारियों ( मिताक्षरा के अनुसार चौरोद्धरणिक) के पास ले जाय, किन्तु यदि वह समझता है कि ऐसा करने में अधिक समय लगेगा या उसे बहुत दूर जाना पड़ेगा तो वह उसे न्यायालय में स्वयं पकड़कर ला सकता है । ऐसी स्थिति में क्रेता को चाहिए कि वह विक्रेता को उपस्थित करे, किन्तु यदि विक्रेता मर गया हो या विदेश चला गया हो तो वास्तविक स्वामी को वह वस्तु लौटा दे। यदि क्रय व्यापारियों, राजकर्मचारियों के समक्ष किया गया हो, किन्तु विक्रेता अजनवी व्यक्ति हो, या मर गया हो, तो वास्तविक स्वामी अपनी वस्तु आधा मूल्य देकर प्राप्त कर सकता है, क्योंकि अजनवी व्यक्ति से सामान खरीदना तथा अपनी सम्पत्ति की रक्षा न करना दोनों दोषपूर्ण आचरण हैं । यही बात मरीचि (अपरार्क
२. मूले समाहृते क्रेता नाभियोज्यः कथंचन । मूलेन सह वादस्तु नाष्टिकस्य विधीयते । बृहस्पति ( मिताक्षरायाश० २।१७०, पराशरमाधवीय ३, पृ० २६५, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २१५ ) । विक्रेता दर्शितो यत्र हीयते व्यवहारतः । ऋत्रे राज्ञे मूल्यदण्डौ प्रदद्यात्स्वामिने धनम् || बृहस्पति ( वही )
३. प्रकाशं च क्रयं कुर्यात्साधुभिर्ज्ञातिभिः स्वकैः । न तत्रान्या क्रिया प्रोक्ता दैविकी न च मानुषी । कात्यायन (६१६ ) । इसके लिए देखिए अपरार्क ( पृ० ७१७), पराशरमाधवीय ( पृ० १०४ ) एवं विवादरत्नाकर ( पृ० १०६ ) । ४. वणिग्वीथीपरिगतं विज्ञातं राजपूरुषः । अविज्ञाताश्रयात् क्रीतं विक्रेता यत्र वा मृतः ॥ स्वामी दत्स्वार्थ
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