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________________ अध्याय १७ अस्वामिविक्रय स्वामित्व की विविध विधियों के विषय में हमने इस ग्रन्थ के द्वितीय भाग, अ०६ में पढ़ लिया है और इस विषय में वायभाग के अन्तर्गत पुनः पढ़ेंगे। यहाँ हम संक्षेप में अस्गमिविक्रय का विवेचन उपस्थित करेंगे। नारद (७१) एवं बृहस्पति के मतानुसार गुप्त रूप से निम्नलिखित की बिक्री अस्वामिविक्रय के अन्तर्गत आती है, यथा--खुला निक्षेप, मुद्रांकित निक्षेप (मुहरबन्द धरोहर), दूसरे को दी जानेवाली सामग्री, चोरी की वस्तु, किसी उत्सव के लिए ली गयी वस्तु, प्रतिभूति, किसी की छूटी हुई वस्तु आदि।' इस प्रकार की बिक्री करनेवाला व्यक्ति अधिकारी विक्रेता नहीं कहा जाता। यही बात व्यास ने भी लिखी है । इस प्रकार के विक्रय में दूसरे के धन को गुप्त रूप से दान रूप में देना या उस पर प्रतिश्रुत होना या उत्तरदायी (देनदार) होना भी सम्मिलित है । ऐसी बिक्री यदि खुले आम भी की जाय तब भी उसे अस्वामिविक्रय की ही संज्ञा मिलती है । कात्यायन (६१२) के मत से यदि अस्वामी विक्रय, दान आदि करता है तो उसे राजा अथवा न्यायाधीश द्वारा विनिवर्तन कराना (लौटवा देना) चाहिए। यही बात मनु (८।१६६), नारद (स्मृ० च० २, पृ० २१३, व्य० प्र० पृ० २६१) में भी पायी जाती है। याज्ञ० (२।१६८) एवं नारद (७२) का कथन है कि अस्वामी द्वारा विक्रय की हुई वस्तु पर स्वामी का अधिकार हो सकता है। यदि खरीद करनेवाला व्यक्ति अस्वामी का माल चोरी से (गुप्त रूप से)खरीदता है तो वह दण्ड का भागी होता है, यदि वह ऐसे लोगों से खरीद करता है जिनके पास सामान बेचने के साधन न हों (यथा-नौकर से, जो बिना स्वामी की आज्ञा के बेचता है) या बहुत कम दाम में खरीदता है या अर्ध रात्रि में या ऐसे समय खरीद करता है जब कि लोग ऐसा नहीं करते, या दुश्चरित्र लोगों से खरीद करता है, तो उसे चोरी के दण्ड का भागी होना पड़ता है (याज्ञ० २।१६८; विष्णु० ५।१६६; नारद ७।३; मनु दा२०२ आदि) । इस प्रकार की बिक्री छद्य-व्यवहार या बेईमानी की संज्ञा पाती है। यदि कोई व्यक्ति अज्ञानवश प्रकाश में ऐसी खरीद करता है तो वह क्षम्य हो जाता है, किन्तु उसे सामान लौटाना पड़ता है(विष्णु० ५।१६४-१६६)। यदि खरीद करनेवाला पूरा भेद खोल देता है तो वह बच जाता है। किन्तु ऐसा न करने पर उसे चोर का दण्ड भुगतना पड़ता है। (मनु ८।२०२, नारद ७४) । बृहस्पति, मनु (८।३०१) एवं याज्ञ० (२।१७०) का कथन है कि यदि क्रेता द्वारा विक्रेता उपस्थित कर दिया जाय तो वह कानून के पंजे से छूट जाता है और विक्रेतापर कार्रवाई होने लगती है और जब उसके विपक्ष में फैसला होता है तो उसे क्रेता को वस्तु का मूल्य, राजा को अर्थ-दण्ड तथा वस्तु के स्वामी को उसकी वस्तु १. निक्षिप्तं वा परद्रश्यं नष्टं लब्ध्वापहृत्य वा। विक्रीयतेऽसमक्षं यद् विज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः ॥ नारद (७।१); निक्षेपावाहितन्यासहृतयाचितबन्धकम् । उपांशु येन विक्रीतमस्वामी सोभिधीयते ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० २१३, व्यवहारप्रकाश पृ० २६०); याचितावाहितन्यासं हृत्वा चान्यस्य यद्धनम् । विक्रीयते स्वाम्यभावे स ज्ञेयोऽस्वामिविक्रयः ।। व्यास (व्यवहारमयूख पृ० १६५, व्यवहारप्रकाश पृ० २६०) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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