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धर्मशास्त्र का इतिहास आदि), अन्वाहित (जो तीसरे को दी जाय, जब कि वह दूसरे की हो और प्रतिश्रुत हो चुकी हो), न्यास,उपनिधि,शिल्पिन्यास (बनाने के लिए दिया गया सामान, तथा आभूषण बनाने के लिए सुनार को दिया गया सोना आदि), प्रतिन्यास (एक-दूसरे को दिया गया सामान) । इस विषय में देखिए कौटिल्य (३।१२) । यदि दैवसंयोग से राजा या चोरी के
ण याचितक या अवकृत (उधार दिया गया सामान) नष्ट हो जाय तो लेनेवाला उत्तरदायी नहीं होता। कात्यायन (६१०) के मत से यदि उधार ली हुई वस्तु माँगने पर न लौटायी जाय तो वह जोर-जबरदस्ती से ली जा सकती है, अपराधी को अर्थ-दण्ड देना पड़ता है या ध्याज के साथ वस्तू का मल्य देना पड़ता है। समय के भीतर मांगने पर मल्य नहीं दिया जा सकता किन्तु समय के उपरान्त न देने पर मूल्य तथा नष्ट हो जाने पर ब्याज सहित मूल्य देना पड़ता है। और देखिए कात्यायन (६०६)।
शिल्पिन्यास के विषय में भी विशिष्ट नियम है । कात्यायन (६०३-६०४) का कथन है कि यदि शिल्पकार समय के उपरान्त सामग्री रख लेता है और देवसंयोग से वह नष्ट हो जाती है तो वह मूल्य का देनदार होता है। यदि सामग्री दोषपूर्ण होने के कारण नष्ट हो जाय तो वह देनदार नहीं होता; किन्तु यदि सामग्री दोष रहित हो और शिल्पकार द्वारा नष्ट हो जाय, उसकी चमक आदि भ्रष्ट हो जाय, तो वह मूल्य देने का उत्तरदायी होता है।
अल्पवयस्क के धन के संरक्षक को भी सावधानी रखनी पड़ती है। ऐसा न करने पर वह धन का देनदार होता है। देखिए नारद (५।१५)।२८
२८. प्रतिगृह्णाति पोगण्ड यश्च सप्रधनं नरः । तस्याप्येष भवेद्धर्मः षडेते विधयः समाः ।। नारद (५।१५) । नारद (४।३५) ने पोगण्ड को सोलह वर्ष के भीतर का बालक माना है--बाल आ षोडशाद्वर्षात्पोगण्ड इति शस्यते । गौतम (१२।३४) एवं मनु (८।१४८) ने भी इस शब्द का प्रयोग किया है।
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