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________________ ७८६ धर्मशास्त्र का इतिहास ( नारद ४/२२ ) और इसलिए उसको ग्रहण करनेवाले को ऋण का देनदार माना गया है । वैजयन्ती में विष्णुधर्मसूत्र ( ६।३० ) की व्याख्या के सिलसिले में याज्ञ० (२।५१ ) एवं नारद ( ४।२३ ) का विश्लेषण किया गया है। इनके मत से 'पुत्र' शब्द रिक्थग्राह (जिसे वसीयत मिली हो), योषिद्ग्राह (विवाहित ) एवं अनन्याश्रितद्रव्य ( बिना पत्नी एवं पुत्र वाला, तथा वह जिसे वसीयत न मिली हो, क्योंकि उसने या तो नहीं चाही या सम्पत्ति थी ही नहीं) नामक तीन विशेषणों से युक्त है । अतः पुत्रों में जिसे रिक्थ ( वसीयत ) मिलता है, वह ऋण का देनदार होता है, ऐसे पुत्र के अभाव में विवाहित को ऋण देना पड़ता है तथा विवाहित के अभाव में जो पत्नीहीन या पुत्रहीन होता है या सम्पत्तिहीन होता है वह ऋण का देनदार होता है । निक्षेप ( धरोहर ) - 'निक्षेप', उपनिधि' एवं 'न्यास' शब्द कभी-कभी पर्यायवाची माने जाते रहे हैं, जैसा कि अमरकोश में आया है । २३ अन्य प्राचीन ग्रन्थों में इनके विभिन्न अर्थ दिये गये हैं । याज्ञ० । १ (२०६५) के मत से किसी मंजूषा ( बक्स) में कुछ रखकर तथा उसे बताकर जो किसी के पास रख दिया जाता है उसे उपनिधि कहा जाता है। याज्ञ० (२/६७) में न्यास एवं निक्षेप को उपनिधि से भिन्न माना गया है। नारद को उद्धृत करते हुए मिताक्षरा ( याज्ञ० २२६५ ) उपनिधि को ऐसी धरोहर माना है जो किसी मुहरबन्द बरतन में बिना गिने किसी व्यक्ति की उपस्थिति में रखी जाती है और यह नहीं बताया जाता कि क्या रखा गया है; किन्तु उसने निक्षेप को उस रूप में वर्णित किया है जब कि वस्तु गिन कर व्यक्ति की उपस्थिति में रखी जाती है । मनु ( ८ । १४६ = वसिष्ठ १६/१८), कौटिल्य ( ३।१२ ) में निक्षेप एवं उपfafe को पृथक-पृथक घोषित किया है। क्षीरस्वामी ने न्यास को खुली धरोहर तथा निक्षेप को किसी शिल्पकार को बनाने के लिए दी गयी सामग्री ठहराया है। नारद ( ५। १ एवं ५ ) ने प्रत्यय (विश्वास) के रूप में रखी गयी सामग्रियों को निक्षेप कहा है तथा याज्ञ० (२०६५) के समान उपनिधि की व्याख्या की है । विश्वरूप ( याज्ञ० २।६६ ) ने सुरक्षा के निमित्त दिये गये खुले सामान को न्यास कहा है और एक व्यक्ति द्वारा तीसरे को देने के लिए दूसरे को दिये गये सामान को निक्षेप की संज्ञा दी है । कात्यायन ने (५६२) उपनिधि को जमानत देने का एक सामान्य रूप माना है, तथा--क्रय गयी वस्तुको विक्रेता के हाथ में रख छोड़ना, धरोहर रखना, प्रतिज्ञा-पत्र देना, एक के लिए दूसरे को जमानत देना अल्पकाल के उपयोग के लिए किसी वस्तु को उधार रूप में लेना, किसी प्रतिनिधि को बिक्री के लिए सामान देना । याज्ञ० ( २२६७) में मिताक्षरा ने न्यास की परिभाषा घर के मालिक (गृहस्वामी) की अनुपस्थिति में घर के किसी अन्य सदस्य को उसे दे देने के लिए देने के रूप में की है और निक्षेप को निक्षेप करने वाले की उपस्थिति में रखी जानेवाली धरोहर के रूप में स्वीकार किया है । व्यवहारप्रकाश ( पृ० २८०) ने निक्षेप, उपनिधि एवं न्यास का अन्तविभेद बताया है | २४ निक्षेप या उपनिधि प्रत्यय (विश्वास) के लिए जमानत मात्र है और आधि ऋण के लिए धरोहर या व्याज एकत्र करने के लिए प्रतिभूति है । प्रथम दोनों केवल सुरक्षा से रखे जाने का प्रत्यय मात्र हैं । २५ बृहस्पति का कथन है कि इस २३. पुमानुपनिधिर्न्यासः प्रतिवानं तदर्पणम् । अमरकोश; स्मातें त्वेषां भेदोस्ति । वासनस्थ न्यस्य दर्पितम् । द्रव्यमुपनिधिर्न्यासः प्रकाश्य स्थापितं तु यत् । निक्षेपः शिल्पिहस्ते तु भाण्डं संस्कर्तुमर्पितम् ॥ क्षीरस्वामी । २४. ग्राहकस्य समक्षं गणयित्वा स्थापितं निक्षेप । गृहस्वामिनोऽसमक्षं गणितमगणितं वा तस्मिन्नागते एतद्दातव्यमित्युक्त्वान्यस्य तत्पुत्रावेर्हस्ते वत्तं न्यासः । मुद्रांकितं समक्षमगणितं स्थापितमुपनिधिरिति । व्यवहार● प्रकाश ( पृ० २८० ) 1 २५. पूर्वमुपचयापेक्षया परहस्ते वत्तमृणं तदनपेक्षया रक्षणार्थमेवान्यहस्ते द्रव्यमुपनिधिरिति ऋणादानानन्तरमुपनिधेरवसरः । सरस्वतीविलास ( पृ० २६५) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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