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________________ ऋण शोधन का उत्तरदायित्व ७८५ में। अतः अन्य दान-कर्मों में जहाँ होमाग्नि नहीं जलायी जाती (यथा कूप-दान या वाटिका दान आदि में), उनके पृथक-पृथक् अधिकार हैं। और देखिए सरस्वतीविलास, (पृ० ३५२)। पुत्र के व्यक्तिगत ऋण के लिए पिता देनदार नहीं होता, और न पत्नी के ऋण के लिए पति; उसी तरह पति तथा पुत्रों के ऋण के लिए पत्नी देनदार नहीं होती। किन्तु यदि ऋण कुटुम्बार्थ लिया गया हो तो पुत्र, पति तथा पत्नी रे के ऋण के उत्तरदायी होते हैं (याज्ञ० २।४७, नारद ४।१०-११एवं कात्यायन ५४५ तथा ५७६) २१ किन्तु यदि पिता पुत्र का ऋण चुकाने के लिए प्रतिश्रुत हो या उसकी स्वीकृति दे तो वह देनदार होता है । मनु (८।१६७),याज्ञ० (२।४५), नारद (४।१२), बृहस्पति तथा कात्यायन (५४५) का कथन है कि यदि कुटुम्ब के लिए घर के मालिक की अनुपस्थिति में पुत्र , भाई, चाचा, पत्नी, माता, शिष्य, नौकर या दास द्वारा ऋण लिया जाय तो घर का मालिक उसका देनदार होता है। कौटिल्य (३।२) का कथन है कि यदि पति, पत्नी द्वारा लिये गये ऋण को लौटाने की व्यवस्था किये बिना विदेश-यात्रा करना चाहता है तो उसे पकड़ लेना चाहिए (उससे काम लेना चाहिए। याज्ञ० (२।४८), विष्णु० (६॥३७) एवं नारद (४।१६) के मत से यदि पतियों की आय एवं गृह-व्यय पत्नियों पर निर्भर रहे तोपति ग्वालों, कलालों, अभिनेताओं, धोबियों एवं शिकारियों आदि के निमित्त गृहीत ऋण के देनदार होते हैं। यह एक अपवाद है, क्योंकि सामान्यतः पति पत्नी के ऋण का देनदार नहीं होता। इसी प्रकार इस नियम के कि पत्नी पति के ऋण की देनदार नहीं होती, अपवाद भी हैं; जहाँ वह प्रतिश्रुत हुई हो यथा-पति के मरते समय, उसके विदेश जाते समय तथा जहाँ दोनों ने सम्मिलित रूप से ऋण लिया हो। व्यक्ति की मृत्यु के उपरान्त किन व्यक्तियों को किस क्रम से ऋण लौटाना पड़ता है, इसके विषय में याज्ञ. (२०५०), नारद (४।२३), बृहस्पति, कात्यायन (५६२ एवं ५७७) एवं विष्णु० (६।२६-३०) की घोषणाएँ हैं। २२ जो भी कोई (पुत्र या सपिण्ड उत्तराधिकारी) मृत व्यक्ति का धन पाता है उसे उसके ऋण चुकाने पड़ते हैं; किन्तु यदि बिना सम्पत्ति छोड़े ऋणी मर जाता है तो जो उसकी पत्नी को ग्रहण करे उसे ऋण चुकाने पड़ते हैं; किन्तु यदि सम्पत्ति न हो और न उसकी पत्नी को ग्रहण करने वाला कोई हो, तो उक्त ऋण का देनदार पुत्र को होना पड़ता है। यह सिद्धान्त नैतिकता पर आधारित है । यदि कई पुत्र हों और उनमें कोई जन्मान्ध हो तो उसके बिना अन्यों को देनदार होना पड़ता है । मृत की पत्नी के ग्रहण कर्ता को ऋण चुकाना पड़ता है", इस कथन से यह अर्थ नहीं निकालना चाहिए कि पुरातन ऋषि-महर्षि विधवा-विवाह के पक्षपाती थे । मनु (२१६२) ने विधवा-विवाह की भर्त्सना की है। किन्तु मिताक्षरा ( याज्ञ ० २।५१) में उल्लिखित है कि कुछ जातियों में विधवाओं का पुनर्ग्रहण परम्परा से प्रचलित है और विधवा रखलों को रख लेने में किसी को मना नहीं किया जा सकता। पत्नी पति की अर्धा गिनी होती है अतः वह पति की सम्पत्ति है २१. प्रोषितस्यामतेनापि कुटुम्बार्थमृणं कृतम् । दासस्त्रीमातृशिष्य दद्यात्पुत्रेण वा भृगुः ॥ कात्यायन ५४५ (अपरार्क पृ० ६४८, पराशरमाधवीय पृ० २६८, विवादरत्नाकर ५६) । पितृव्यभातृपुत्रस्त्रीवासशिष्यानुजीविभिः । यद् गृहीतं कुटुम्बार्थे त गृही दातुमर्हति ।। बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १७४) । २२. धनस्त्रीहारिपुत्राणामृणभाग्यो धनं हरेत् । पुत्रोऽसतोः स्त्रीधनिनोः स्त्रीहारी धनिपुत्रयोः ।। नारद ४।२३; पूर्व दद्याद्धनग्राहः पुत्रस्तस्मादनन्तरम् । योषिप्राहः सुताभावे पुत्रो वात्यन्तनिर्धनः ॥ कात्यायन (५७७, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १७२, व्यवहारप्रकाश पृ० २७१); रिक्थहर्ता ऋणं देयं तदभावे च योषिता। पुत्रश्च तवभावेन्य रिक्यमाग्भिर्यथाक्रमम् ॥कात्यायन (५६२, विश्वरूप--याज्ञ० २।४७); धनस्त्रीहारिपुत्राणां पूर्वाभावे यथोत्तरमाधमण्यं तदभावे क्रमशोन्येषां रिक्थभाजाम्--बृहस्पति (विश्वरूप, याज्ञ० २।४७)। २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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