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धर्मशास्त्र का इतिहास ग्रस्त हो, या आजन्म अन्धा हो, पाप के कारण जातिच्युत हो जाय, पागल हो जाय, क्षय या कोढ़ से ग्रस्त हो जाय, या देश छोड़ जाय, लम्बी यात्रा में चला जाय या अति वृद्ध (८० वर्ष) हो, तो पुत्र को (बाहर जाने के बीस वर्षों के उपरान्त) ऋण चुकाना चाहिए। विवादरत्नाकर (पृ० ५०) के अनुसार यदि पिता न अच्छे होनेवाले रोग से पीड़ित हो या यदि यह निश्चित हो कि वह यात्रा से न लौटेगा, तो पुत्र को तत्काल ऋण चुकाना चाहिए; न कि बीस वर्षों तक प्रतीक्षा करनी चाहिए। और देखिए कात्यायन (५५२-५५३) ।१८।।
सभी स्मृतियों में ऐसा आया है कि यदि न्यायालय द्वारा यह निर्णय हो जाय कि पिता ने अनैतिक कार्यों के लिए ऋण लिया है, तो वसीयत मिलने पर भी पूत्र पर ऋण का उत्तरदायित्व नहीं होता। गौतम (१२।३८), कौटिल्य (३।१६), मनु (८।१५६-१६०), वसिष्ठ (१६।३१), याज्ञ० (२।४७ एवं ५४), नारद (४११०), बृहस्पति, कात्यायन (५६४-५६५), उशना एवं व्यास का कथन है कि निम्नलिखित ऋणों के लिए पूत्र उत्तरदायी नहीं है--प्रत्यय या उपस्थिति के लिए किया गया प्रतिभत्व (जमानत); आसव पीने या जुआ खेलने के लिए लिया गया ऋण ; भाट-चारणों, पहलवानों आदि को दिया गया दान ; क्रोधावेश में या स्त्रियों से अनैतिक सम्बन्ध के कारण वचनबद्ध
लिया गया ऋण; अर्थ दण्ड या चुंगी का शेष तथा वे ऋण जो व्यावहारिक (काननी) नही हैं। कात्यायन (५३४) का कथन है कि यदि पिता प्रत्यय या उपस्थिति के लिए बन्धक (जामिन) हुआ हो, तो उसका पुत्र देनदार होता है।६
याज्ञ ० (२०५२)एवं कौटिल्य (३।२) के अनुसार पति-पत्नी, पिता-पुत्र तथा भाई जब तक एकन्न रहते हों अर्थात जब तक उनकी सम्पत्ति अविभक्त हो, एक-दूसरे के लिए बन्धक नहीं हो सकते, एक-दूसरे के ऋणी या ऋणदाता नहीं हो सकते और न एक-दूसरे के लिए साक्षी हो सकते हैं । मिताक्षरा (याज्ञ० २।५२) ने एक लम्बी टिप्पणी दी है,२० इससे स्पष्ट है कि यदि पति चाहे तो सम्पत्ति के मामले में पत्नी अलग हो सकती है और वैसी स्थिति में वे एक-दूसरे के ऋणी या ऋणदाता हो सकते हैं। मिताक्षरा ने आपस्तम्बधर्मसूत्र (२।६।१४/१६-१६) की व्याख्या यों की है--जाग एवं पति में विभाग (अलगाव) नहीं होता । पाणिग्रहण के उपरान्त वे दोनों धार्मिक कर्मो में, पुण्यफल प्राप्ति एवं धनोपलब्धि में एक-दूसरे के साथी होते हैं; इसी से पति के विप्रवास (विदेश जाने ) में स्त्री नैमित्तिक दान या अवसर पड़ने पर जो कुछ सम्पत्ति व्यय करती है वह चोरी नहींकही जाती। मिताक्षरा का कथन है कि पति-पत्नी की अविभक्तता केवल धार्मिक कृत्यों (श्रौत तथा स्मार्त कृत्यों) में तथा पुण्यफल प्राप्ति में होती है, न कि अन्य कृत्यों या सम्पत्ति के विषय
सिनाम । ऋणमेवविधं पुत्रा जीवतामपि दापयेत् ॥ सानिध्येपि पितुः पुत्रऋण देयं विभावितम् । जात्यन्धपतितोन्मत्तक्षयश्वित्रादिरोगिणः ॥ कात्यायन ५४८-५५०, अपरार्क पृ० ६५०, विवादरत्नाकर पृ० ५०-५१, पराशरमाधवीय ३, पृ० २६४, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १६६, व्यवहारनिर्णय पृ० २ ५५-५६ ।
१८. नाप्राप्तव्यवहारेण पितर्युपरते क्वंचित् । काले तु विधिना देयं बसेयुर्नरकेन्यथा।। अप्राप्तव्यवहारश्चेत् स्वतन्त्रोपि हि नर्णमाक् । स्वातन्त्र्यं हि स्मृतं ज्यैष्ठ्ये ज्येष्ठ्यं गुणवयःकृतम् ॥ कात्यायन ५५२-५५३ (स्मृतिचन्द्रिका, २, पृ० १६४, व्यवहारप्रकाश पृ० २६३ एवं नारद ४।३१) ।।
१६. गृहीत्वां बन्धकं यत्र दर्शनस्य स्थितो भवेत् । विना पित्रा धनं तस्माद् दाप्यः स्यात्तदृणं सुतः॥ कात्यायन ५३४ (मिताक्षरा द्वारा याज्ञ० २०५४ में उद्धत एवं अपरार्क पृ० ६५६) ।
२०. भातृणामथ दम्पत्योः पितुः पुत्रस्य चैव हि । प्रातिभाव्यमणं साक्ष्यमविभक्ते न तु स्मृतम् ॥ याज० २०५२; दम्पत्यों: पितापुत्रयोः भातृणां चाविभक्तानां परस्परकृतमृणमसाध्यम् । कौटिल्य (३२) ।
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