________________
ऋण - शोधन और उसके उत्तरदायी
७८३
दे सकता है (याज्ञ० २१६३; नारद ४।११४; विष्णु० ६ । २६ ) | यदि ऋणदाता ऋणी की प्रार्थना पर रसीद न दे, तो वह अपने शेष ऋण से हाथ धो सकता है। नारद ( ४।११५ बृहस्पति) के मत से यदि ऋणदाता धर्म आदि प्रकारों से प्राप्त धन को प्रमाणपत्र पर या पृथक् रूप से नहीं लिखित करता तो स्वयं ऋणी को ब्याज मिलने लगता है। ऋण चुक जाने पर प्रमाणपत फाड़ दिया जाता था या एक दूसरा प्रमाणपत्र लिख दिया जाता था कि ऋण समाप्त हो गया। साक्षियों के समक्ष दिया गया ऋण उनके ही समक्ष लौटाया जाता था ( याज्ञ० २२६४; विष्णु० ६ । २४-२५; नारद ४।११६) । अब यह देखना है कि ऋण चुकाने का उत्तरदायित्व किन लोगों पर पड़ता है। तीन स्थितियों पर ध्यान दिया जाता था -- (१) धार्मिक, (२) न्याय्य एवं नैतिक तथा ( ३ ) व्यावहारिक ( कानूनी ) । धार्मिक सिद्धान्तों के अनुसार पुत्रों एवं पौत्रों को पितृ ऋण चुकाना पड़ता है ( कौटिल्य ३ । २; याज्ञ० २।५०; नारद ४|४; बृहस्पति ; कात्यायन ५६० ; वृद्ध-हारीत ७।२५०-५१ ; विष्णु० ४।२७ ) | क्या यह उत्तरदायित्व प्रपोत्रों पर भी है ? बृहस्पति ने स्पष्ट लिखा है कि पोतों को प्रपितामह का ऋण नहीं चुकाना पड़ता। यही बात विष्णु० (६।२८) ने दूसरे ढंग से कही है। नारद ( ४१४), कात्यायन आदि के मत से चौथी पीढ़ी के उपरान्त ऋण देने का उत्तरदायित्व समाप्त हो जाता है । किन्तु 'चौथी पीढ़ी' का तात्पर्य क्या है ? इसमें प्रथम ऋणी ( मौलिक ऋणी ) सम्मिलित अथवा नहीं ? सम्भवतः चार पीढ़ियों में मौलिक ऋणी सम्मिलित है, क्योंकि अधिकांश स्मृतियों में 'प्रपौत्र' स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है । मनु ( ६ १३७), बौधायन ( २६ । ६) एवं वसिष्ठ ( १५/१६ ) के मत से पुत्र, पोल एवं प्रपौत्र अपने पूर्वपुरुषों को सर्वोतम आध्यात्मिक लाभ देते हैं, मनु ( ६ । १८६ ) एवं नारद ( ४१६ ) के अनुसार श्राद्ध में तीन पीढ़ियों के लोग पिण्डदान करते हैं। गौतम ( १२ ३७ ), याज्ञ० (२२५१), नारद ( ४।२३ ) एवं विष्णु० ( १५०४० एवं ६।२६ ) के मत से जो वसीयत पाता है वह पिण्डदान करता है और पितृ ऋण चुकाता है। स्पष्ट है, सम्पत्ति अधिकार के साथ पिण्डदान करना एवं ऋण चुकाना एक सामान्य नियम-सा रहा है । जो सन्तान या संतति वसीयत नहीं पाती उसका उत्तरदायित्व क्योंकर रहेगा ? इस विषय में देखिए याज्ञ० (२०५०) की टीका मिताक्षरा; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १७१ ; वीरमित्रोदय (व्यवहारप्रकाश) आदि । स्मृतियों में निम्नलिखित सिद्धान्त प्रकट होते हैं । (१) वंशानुक्रम से प्राप्त सम्पत्ति वाली तीन पीढ़ियों ( पुत्र, पौत्र एवं प्रतौत्र ) को ऋण चुकाना चाहिए ( मिताक्षरा, याज्ञ० २।५१; स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १७१; व्यवहारप्रकाश पृ० २६४) । ( २ ) यदि आगे की पीढ़ियों को वसीयत न मिली हो तो पुत्र को मूलधन तथा ब्याज चुकाना चाहिए, पौत्र को केवल मूलधन तथा प्रपौत्र को, यदि वह न देना चाहे, कुछ नहीं देना पड़ता ( विष्णु० ६।२७-२८ ; बृहस्पति ; कात्यायन ५५६) । वीरमित्रोदय में ये दोनों सिद्धान्त बड़ी सूक्ष्मता से दिये गये हैं । १६ ( ३ ) तीसरा सिद्धान्त उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तों का अपवाद है; पिता के अनैतिक एवं अवैधानिक ऋण को पुत्र भी नहीं दे सकता । इस सिद्धान्त के विषय में हम आगे कहेंगे । ( ४ ) चौथा सिद्धान्त यह है --पिता के रहते कुछ परिस्थितियों में पुत्र पौत्र एवं प्रपौत्र को पिता तथा वंशानुक्रम से आते हुए ऋण को चुकाना चाहिए। याज्ञ० (२।५० ) का कथन है कि पुत्त्रों एवं पौत्रों को पिता के मरने या विदेश चले जाने या न अच्छे होनेवाले रोग से पीड़ित होने पर ऋण चुकाना चाहिए। नारद (४/१४), विष्णु ० ( ६।२७), कात्यायन (५४८-५५०) १७ का कथन है कि यदि पास में रहता एवं जीवित पिता संन्यासी (विष्णु के मत से ) हो जाय, रोग
।
१६. पुत्रेण रिक्थग्रहणाग्रहणयोः सवृद्धिकमेव देयम् । पुत्राभावे पौत्रेण रिक्थग्रहणे सोदयं देयम् । अग्रहणे मूलमेव । प्रपौत्रेण तु रिक्थाग्रहणे मूलमपि न देयम् । व्यवहारप्रकाश, पृ० २६४ ।
१७. धनग्राहिणि प्रेते प्रव्रजिते द्विदश समाः प्रवसिते वा तत्पुत्रपौत्रैर्धनं देयम् विष्णु० (६।२७ ) ; विद्यमानेपि रोगात स्वदेशात्प्रोषितेपि वा । विशात्संवत्सरा देयमृणं पितृकृतं सुतैः ॥ व्याधितोन्मत्तवृद्धानां तथा दोघं प्रवा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org