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________________ ७८२ धर्मशास्त्र का इतिहास 1 बल ( बलवश काम कराना या बन्दी बनाना ) । द्वार पर बैठ जाने की बात आपस्तम्बधर्मसूत्र ( 91५1१६ । १ ) में भी आयी है और ऐसे ऋणदाता को प्रत्युपविष्ट कहा गया है । मरवड़ - शिलालेख (सन् ११४१-४२ ई० ) में (एपिफिया इण्डिका ११, पृ० ३७ ) इस कार्य को काय व्रत ( यदि ब्राह्मणः कार्यव्रतं कृत्वा म्रियते ) कहा गया है । व्यवहार को छोड़कर अन्य प्रकारों का वर्णन बृहस्पति में आया है । धर्म प्रकार में मित्रों एवं सम्बन्धियों द्वारा संदेश भेजकर बार-बार समझाया बुझाया जाता था या प्रार्थनाएँ की जाती थीं । छल या उपधि में ऋणदाता द्वारा किसी बहाने किसी वस्तु (आभूषण आदि) को किसी उत्सव या विवाह आदि में उपभोग के लिए लेकर न लौटाना या किसी को देने के लिए कोई वस्तु लेकर उसे न देना होता था । बल में ऋणी को ऋणदाता के यहाँ बुलाकर बन्द कराना या मारना पीटना होता था । आचरित में ऋणदाता ऋणी के द्वार पर अपनी पत्नी या पुत्र या पशु को बाँध देता या वहीं बैठ कर उपवास करना आरम्भ कर देता था । किन्तु ये सभी विधियाँ सभी प्रकार के ऋणियों के साथ नहीं सम्भव थीं । कात्यायन (४७७-४८०) ने भी कुछ विधियाँ बतायीं हैं । यदि व्यवहार को छोड़कर अन्य विधियाँ ऋणदाता द्वारा अपनायी जाती थी और ऋणी को कष्ट दिया जाता था तो वह ऋणी न्यायालय की शरण ले सकता था और जब सन्देह उत्पन्न हो जाता या मूल धन, व्याज, पात्रता आदि के विषय में झगड़ा खड़ा हो जाता था और अन्त में ॠणदाता हार जाता तो उसे दण्डित किया जाता था और उसे निर्धारित धन लेना पड़ताथा । किन्तु यदि ऋणी अपनी जिम्मेदारी स्वीकार कर लेता और फिर भी ऋण नहीं देता तथा ऋणदाता व्यवहार को छोड़ अन्य विधियाँ अपनाता था जो ऋणी की जाति एवं वृत्ति के अनुरूप होती थीं और तब भी ऋणी ऋणदाता के विरुद्ध राजा के यहाँ आवेदन करता था तो राजा उसे दण्डित करता था और उसे ॠण-धन एवं अनावश्यक आवेदन करने का अर्थ दण्ड देने के लिए उद्वेलित करता था (याज्ञ० २०४० ; मनु ८ । १७६; विष्णु ० ६ । १६ ) । इस विषय में और देखिए कात्यायन ( ५८०-५८४ ) | मनु (८।१७७), याज्ञ० (२।४३) एवं नारद ( ४।१३१) का कथन है कि यदि ऋणी ऋण लौटाने में असमर्थ हो तो ऋणदाता द्वारा उससे उसकी जाति के अनुरूप तब तक अपने घर में काम कराया जा सकता है जब तक ॠण पूरा न हो जाय; किन्तु ऐसी स्थिति में ब्राह्मण ऋणी से हल्की किश्त में ऋण उगाहा जा सकता है। कौटिल्य ( ३०२ ) का कथन है कि ऋणी कृषकों एवं राजकर्मचारियों को फसल के समय नहीं पकड़ना चाहिए; उन स्त्रियों को, जो अपने पतियों का ऋण चुकाने के लिए प्रतिश्रुत नहीं हुई हों, बन्दी नहीं बनाना चाहिए; किन्तु उन चरवाहों की पत्नियों को, जिन्होंने आधे अनाज पर भूमि जोतने बोने को ली हो, निर्धारित धन या अनाज न देने पर पकड़ा जा सकता है। यदि कई ऋणदाता हों तो पहले को पहले देना चाहिए, ब्राह्मण ऋणदाता को क्षत्रियों की तुलना में ऋण का भुगतान पहले मिलना चाहिए ( याज्ञ० २।४१, कात्या० ५४१ ) । कौटिल्य ( ३।२ ) के मत से राजा एवं श्रोत्रियों को प्रमुखता मिलनी चाहिए । किन्तु कात्यायन (५१३) के मत से यदि एक ही दिन कई प्रकार के समय (करार) किये गये हों तो सबको बराबर-बराबर मिलना चाहिए। और देखिए भरद्वाज | १५ यदि ऋणी पूरा ऋण एक बार चुकाने में असमर्थ हो तो वह जो कुछ समय-समय पर दे सके उसे ऋण के लेख्य प्रमाण के पृष्ठभाग पर लिखित कर देना चाहिए । यदि ऋणदाता चाहे तो रसीद (उपगत या प्रवेशपत्र, मिताक्षरा ) भी १५. ऋणिकस्य धनाभावे देयोन्योर्थस्तु तत्क्रमात् । धान्यं हिरण्यं लोहं वा गोमहिष्यादिकं तथा । वस्त्रं भूर्दासवर्गश्च वाहनादि यथाक्रमम् । धनिकस्य तु विक्रीय प्रदेयमनुपूर्वशः ॥ क्षेत्राभावे तथारामस्तस्याभावे गृहक्रयः । द्विजातीनां गृहाभावे कालहारो विधीयते ॥ भरद्वाज ( व्यवहारनिर्णय पृ० २५४; पराशरमाधवीय ३, २५६; व्यवहारसार पृ० ११६ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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