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आधि के प्रकार ; प्रतिभू ( जामिन )
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बहाया जा सकता है। मिताक्षरा (याज्ञ० २२६३) में लिखा है कि जब ऋणदाता अनुपस्थित हो तो ऋणी को चाहिए वह आधि का मूल्य निर्धारण करके ऋणदाता के यहाँ रहने दे और आगे का ब्याज न दे और ऋणदाता के आने पर उसे ले ले तथा उसके नष्ट हो जाने पर उसका मूल्य ले ले ।
प्रतिभू -- प्रतिभू या लग्नक ( बृहस्पति एवं कात्यायन ५३० ) का अर्थ है औपनिधिक या जामिन । गौतम (१२।३८ ) में प्रातिभाव्य एवं पाणिनि ( २।३।३६ ) में प्रतिभू आया है । प्रतिभू में तीन व्यक्ति आते हैं; ॠणदाता, ऋणी (मुख्य ऋणी ) तथा वह व्यक्ति जो जामिन होता है, अर्थात् विश्वास दिलाता है कि यदि ऋणी नहीं देगा तो वह देगा | मनु (८।१६० ) ने प्रतिभू का उल्लेख उपस्थित होने तथा ऋण देने के सिलसिले में किया है । प्रतिभू के तीन उद्देश्य हैं : समय पर उपस्थित होना, धन देना तथा ईमानदारी का प्रदर्शन, अर्थात् ऋणी को उपस्थित कराने के लिए, ऋणी के धन न देने पर स्वयं धन देने के लिए तथा यह विश्वास दिलाने के लिए कि ऋणी पर विश्वास किया जा सकता है। इन बातों के अर्थ के लिए देखिए याज्ञ० (२०५३) पर मिताक्षरा, स्मृतिचन्द्रिका २ ( पृ० १४८) । बृहस्पति ने याज्ञवल्क्य द्वारा उपस्थापित उपर्युक्त तीन प्रतिभूओं के अतिरिक्त एक और बतलाया है; वह व्यक्ति जो ऋणी का विभव (यथा-- आभूषण तथा अन्य सामान आदि ) दिला देने की जिम्मेदारी ले । कात्यायन ( ५३० ) ने लिखा है कि लग्नक (प्रतिभू) ऋणी द्वारा ऋण लौटाने, उसकी उपस्थिति ( उपस्थान), उसकी ईमानदारी तथा शपथ ( या दिव्य ) दिलाने आदि में काम आता है। हारीत के मत से प्रतिभू के पाँच उद्देश्य होते हैं : अभय या शान्ति रखने के लिए, ईमानदारी के लिए, ऋण दिलाने के लिए, ऋण की सम्पत्ति दिला देने के लिए तथा उसकी उपस्थिति के लिए । १४ आजकल इन पाँचों प्रकारों को कार्यान्वित किया जाता है । व्यवहारप्रकाश ( पृ० २४८) ने व्यास द्वारा कथित सात प्रकारों को तीनही प्रकारों में रख दिया है। किन्तु ईश्वर या राजा द्वारा उपस्थापित बाधाओं में प्रतिभू होनेवाले को छूट भी मिली है (मनु ८।१५८ एवं कात्यायन ५३२/५३३) ।
इसमें सन्देह नहीं कि प्रतिभू बनने वाले को ऋणी का उत्तरदायित्व ग्रहण करना पड़ता था, किन्तु उसकी मृत्यु के उपरान्त उसकी सन्तानों को ऋणी की उपस्थिति या प्रत्यय ( ईमानदारी) का भार नहीं ढोना पड़ता था । किन्तु यदि प्रतिभू होने वाला व्यक्ति ऐसा करने के लिए ऋणी से कुछ प्रतिभूति स्वयं ग्रहण कर लेता था तो उसकी सन्तान को उसे लौटाना पड़ता था । पुत्रों एवं पौतों द्वारा चुकाये जानेवाले प्रतिभू-उत्तरदायित्वों के विषय में हम आगे लिखेंगे । यदि प्रतिभू होने वाले कई व्यक्ति हों, तो उन्हें अनुपात के अनुसार ही चुकाना पड़ता था । किन्तु यदि सभी प्रतिभू व्यक्तियों सम्मिलित रूप से जिम्मेदारी ली हो तो ऋणदाता किसी एक पर भी सम्पूर्ण घन का दावा कर सकता है (याज्ञ० २।५५ एवं नारद ४ । १२० ) । अन्य बातों के लिए देखिए कात्यायन ( ५३८-५३६), याश ० ( २।५६ ), नारद ( ४१२१ ) एवं विष्णु ० ( ६।४४ ) ।
ऋण चुकाने के कई प्रकार थे। मनु ( ८ ।४७-४८ ) के मत से राजा किसी भी प्रकार से ॠणी द्वारा ऋणदाता को धन दिलाने की व्यवस्था कर सकता है। यदि ऋण लेने की बात अस्वीकार हो तो एकमात्र ढंग था न्यायालय में मुकदमा चला देना । किन्तु ऋण स्वीकार कर लेने पर मनु ( ८/४६ = नारद ४ । १२२) एवं बृहस्पति ने ॠण उगाहने के पाँच प्रकार बताये हैं -- ( १ ) धर्म ( अनुरोध, अनुनय करना, समझाना - बुझाना ), ( २ ) व्यवहार ( न्यायालय की शरण जाना), (३) छल या उपधि ( चालाकी), (४) आचरित ( धरना, ऋणी के द्वार पर बैठ जाना) तथा ( ५ )
१४. अभये प्रत्यये दाने उपस्थाने प्रदर्शने । पञ्चस्बेव प्रकारेषु ग्राह्यो हि प्रतिभूर्बुधैः ॥ हारीत (स्मृतिचन्द्रिका २, १४८; व्यवहारप्रकाश २४८ ) ।
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