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________________ ७८० धर्मशास्त्र का इतिहास पड़ता है या ऋण समाप्त हो जाता है। इस विषय में देखिए याज्ञ ० (२।५६) एवं उसी पर मिताक्षरा एवं नारद (४।१२५ के लिए देखिए कात्यायन (५२३) : नारद (४/१२६, १३०): याज्ञ० (३१५६): विष्ण (६।६); गौतम (१२।३६) एवं बृहस्पति । निक्षेप को सावधानी से रखने के विषय में देखिए नारद (निक्षेप १४); याज्ञ० (२०६७); मनु (८1१1८) । निक्षेप का अर्थ है धरोहर या बन्धक जो ऋण लेने के लिए रखा जाय । ___ पारस्परिक समझौता या निर्णय हो जाने के उपरान्त ऋणी समय से पूर्व आधि या बन्धक माँग नहीं सकता, :नये समझौते से प्राप्त कर सकता है। किन्तु यदि ऋणदाता समय के उपरान्त उसे नहीं लौटाता है तो उसे चोर वाला दण्ड मिल सकता है (याज्ञ० २।६२) । ऐसी स्थिति में कौटिल्य (३.१२) ने १२ पण का अर्थ-दण्ड घोषित किया है । जब गोप्य आधि हो या मूल धन एवं ब्याज मिलकर दूना धन हो गया हो और समय की छूट के उपरान्त भी किसी प्रकार की देन न हुई हो या निश्चित समय बीत गयाहो और ब्याज आदि न दिया गया हो (चाहे धन दूना हुआ हो या नहीं) तब बन्धक का स्वामित्व ऋणदाता को प्राप्त हो जाता है (मिताक्षरा, याज्ञ० २।५८) । किन्तु यदि लिखापढ़ी में स्वामित्व के नष्ट होने की बात न लिखित हो, केवल धन तथा ब्याज के मिलने की बात हो तो स्वामित्व बना रहता है। ऐसी स्थिति में ऋणी को बन्धक बेच देने का अधिकार रहता है। यही बात भोग्याधि में भी है, और इस स्थिति में ऋणी या उमके उत्तराधिकारी किसी भी समय धन देकर बन्धक की वस्तु प्राप्त कर सकते हैं और बन्धकवस्तु का स्वामित्व समाप्त नहीं हो सकता। याज्ञ० (२०६३) एवं बृहस्पति के मत से ऋणदाता ऋणी के सम्बन्धियों तथा साक्षियों के समक्ष आधि बेच सकता है, जब कि धन दूना हो चुका हो या निश्चित समय बीत चुका हो या ऋणी मर गया हो या अनुपस्थित हो या धन लौटा न सका हो । कात्यायन (५२६) के मत से ऐसी स्थिति में ऋणदाता अपना धन लेकर शेष राजा को (सम्भवतः पास के न्यायालय में) लौटा देता है। कौटिल्य (३।१२) का कथन है कि यदि ऋणदाता को अपने धन की हानि की सम्भावना हो और आधि के व्यापार-मूल्य से वह अधिक हो तो धर्मस्थों को आज्ञा से वह ऋणी की उपस्थिति में उसे बेच सकता है या वह विश्वास के लिए धरोहर या प्रतिभूति या प्रत्यय की माँग कर सकता है। उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि प्राचीन भारत में न्यायालय के द्वारा अथवा व्यक्तिगत रूप में बन्धक की बिक्री न्यायानुकूल थी। याज्ञ० (२०६१) ने आधि के दो अन्य प्रकार भी लिखे हैं; चरित्रबन्धक एवं सत्यंकार । प्रथम आधि में यदि ऋगादाता अच्छे चरित्र (ईमान) का होतो अधिक मूल्य की आधि भी दी जा सकती है या यदि ऋणी अच्छे चरित्र का हो तो कम मूल्म वाली आधि भी स्वीकृत हो सकती है। इन स्थितियों में दी हुई सम्पत्ति की हानि नहीं होती और राजा या न्यायालय केवल ब्याज का दूना दिला सकता है । दूसरा अर्थ यह है कि इसमें अपूर्व या पुण्य प्रत्यय होता है, अर्थात् गंगा-स्नानयात्रा या अग्निहोत्र यज्ञ करने के फल का ही विश्वास या प्रत्यय पर्याप्त है। ऐसी स्थिति में ऋणदाता को दूना मिल जाता है और आधि की हानि नहीं होती। दूसरे प्रकार की आधि अर्थात् सत्यकार में लिखते समय केवल यह लिखा जाता है--"मैं केवल दूना दूंगा। आधि की हानि नहीं होगी।" इसका दूसरा अर्थ यह है--जब केवल कोई चिह्न (अंगूठी आदि) दिया जाय और ऋणी अपना प्रतिवचन न निबाहे तो उसे उस प्रतिभूति का दूना देना पड़ता है। यदि ऋणदाता मर जाय या विदेश में हो और ऋणी धन लौटाना चाहता हो तो वह उसके कुटुम्ब को देकर आधि प्राप्त कर सकता है। यदि ऐसी स्थिति में ऋणदाता का कोई सम्बन्धी न हो तो धन किसी ब्राह्मण (यदि ऋणदाता ब्राह्मण हो) को दिया जा सकता है और यदि कोई ऐसा ब्राह्मण न मिले तोधन जल में फेंका जा सकता है (याज्ञ. २॥६२; नारद ४११२-११३)। कौशिक-सूत्र (४६।३६-४७) में आया है कि ऐसी स्थिति में अर्थात जब ऋणदाता मर गया हो और उसका कोई उत्तराधिकारी न हो तो धन श्मशान में या चौराहे पर रख दिया जा सकता है। संग्रह का कथन है कि ऐसी स्थिति में धन पलाश के पत्ते पर रखकर तैत्तिरीय संहिता के ३।३।४।१-२ मन्त्र पाठ के साथ जल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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