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________________ आधि (रहन, बन्धक) नारद (४।१२८) ने प्रथमतः आधि को दो भागों में बाँटा है :(१) जो कुछ काल तक ही रखा जाय एवं (२) जो पूरा ऋण चुकाये जाने तक रहे। नारद ने पुनः इन दोनों को पृथक्-पृथक् गोप्य एवं भोग्य दो भागों में बांटा है। इस अन्तिम विभाजन को गौतम (१२।३२), मनु (८।१४३), याज्ञ ० (२०५६) एवं कात्यायन (५७६) भी मानते हैं। इस विषय में विस्तार के साथ देखिए मिताक्षरा (याज्ञ० २०५८), मेधातिथि (८।१४३), कुल्लूक (मनु ८।१४३) एवं प्रजापति (पराशरमाधवीय ३, पृ० २४२) । आधि के विषय मे सामान्य नियम यह है कि चाहे वह जंगम हो या स्थावर, यदि वह भोग्य है तो उस पर ब्याज नहीं लगता और ऋणी को धन (ऋण) लौटा देने पर अपनी सम्पत्ति पुनः प्राप्त हो जाती है। व्यास एवं भरद्वाज (सरस्वतीविलास, पृ० २३२-२३४) के अनुसार भोग्य आधि के विषय में सम्पत्ति की आय पूर्ण ब्याज तथा मूल के कुछ भाग के रूप में ग्रहण कर ली जाती है । इसी को सप्रत्यय भोग्याधि कहते हैं । जहाँ सम्पत्ति-आय केवल ब्याज के रूप में ली जाती है उसे अप्रत्यय भोग्याधि कहा जाता है। मिताक्षरा (याज्ञ० २।६४)का कथन है कि अप्रत्यय मोग्याधि को क्षयाधि भी कहा जाता है। वसिष्ठ (स्मृति चन्द्रिका २, पृ० १४५) के मत से यदि कोई अपनी सम्पत्ति बन्धक रखकर उसे पुनः बेच देता है तो क्रयकर्ता को बन्धक का उत्तरदायित्व ग्रहण करना पड़ता है, अर्थात् वह ऋण का देनदार होता है। यदि कोई बन्धक रखे और उसी दिन उसे बेच दे या किसी को भेट रूप में भी देदे तो प्रतिग्रहण करने वाले को एक तिहाई मिलता है और बन्धक रखने वाले तथा क्रयकर्ता को शेष दो-तिहाई में बराबर-बराबर मिलता है। भरद्वाज (व्यवहारनिर्णय पृ०२४५) के मत से यदि किसी को कई ऋण देने हों, यथा--कुछ आधि या बन्धक वाले और कुछ प्रतिभूति या व्यक्तिगत न्यास वाले को, तो अन्तिम को सबसे पहले मिलता है और बन्धक वाले को कालान्तर में। ___ कात्यायन (५५२) के मत से यदि भूमि या घर या गाँव की सीमा के विषय की (चौहद्दी आदि) सारी बातें उल्लिखित हो जाये तो आधि सबल हो उठती है। केवल साक्षी-गण के समक्ष की अपेक्षा लिखित प्रमाण प्रबलतर होता है (कात्यायन ५१८) । यदि पृथक रूप से एक ही वस्तु कई जगह बन्धक रखी जाय तो जो पहले अधिकार कर लेता है उसको प्रमुखता मिलती है (विष्णु० ५।१८५ एवं बृहस्पति, पराशरमाधवीय ३, पृ० २३३)। इससे स्पष्ट है कि हिन्दू न्याय के अनुसार स्वामित्व या भोग अधिक प्रबल था। इस विषय में देखिए याज्ञ० (२०६०), नारद (४।१३६) । यदि कोई बन्धक किसी एक के पास साक्षी-गण के सामने रखा जाय और दूसरे के पास लिखित रूप में, तो दूसरे को पहले की अपेक्षा प्रामाणिकता दी जाती है (कात्यायन ५१८ पराशरमाधवीय ३,२३५ स्मतिचन्द्रिका २,१० १४४%, सरस्वतीविलास पृ० २३७) । यदि ऋणी एक ही वस्तु किसी दूसरे को बन्धक रूप में दे और पहले का ऋण न चुकाये तो विष्णु ० (५।१८०-१८२) के मत से उसे शरीर-दण्ड या कैद की सजा दी जा सकती है और यदि बन्धक वाली भूमि गोचर्म हो या अति विस्तृत हो तो भी यही दण्ड दिया जाता है, किन्तु भमि कम हो तो १६ सुवर्ण का दण्ड दिया जाता है । इन स्थितियों में कात्यायन (५१७) ने उसे चोर की सजा देने की व्यवस्था दी है। अन्य बातों के लिए देखिए कात्यायन (५१६-५२१)। यदि आधि का मूल्य कम हो जाय और वह मूल एवं ब्याज के बराबर हो या नष्ट-भ्रष्ट हो जाय तो ऋणी को दूसरी वस्तु बन्धक में रखनी पड़ती है या ऋण लौटा देना पड़ता है (याज्ञ० २।६०, कात्यायन ५२४)। ऋणदाता को प्रतिभूति या बन्धक की वस्तु बड़ी सावधानी से रखनी चाहिए (मिताक्षरा, याज्ञ० २१६०; बृहस्पति)। यदि रखी हई वस्तु को समझौते के प्रतिक्ल उपयोग में लाया जाय तो ब्याज बन्द हो जाता है और यदि वह नष्ट हो जाय तो ऋणदाता को उसे उसी रूप में लौटाना पड़ता है या उसके मूल्य की दूसरी वस्तु देनी पड़ती है। इसी प्रकार उपयोग में लायी जानेवाली बन्धक-वस्तु नष्ट या खराब हो जाय तो ऋणदाता का ब्याज बन्द हो जाता है और उसे उस वस्तु को लौटाना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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