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________________ ७७८ धर्मशास्त्र का इतिहास जायगा, तो आगे चलकर ऋण दुगुने से अधिक मिल सकता है । मनु (८।१५४-१५५) एवं बृहस्पति ने ऐसा समझौता मान लिया है। किन्तु यदि ऋणी ऐसा समझौता नहीं करता तो दामदुपट का नियम लागू होगा।(३) यदि ऋण दूना हो जाय और ऋणी के स्थान पर कोई दूसरा व्यक्ति ऋण चुकाने का भार ले ले तो ऋणदाता को दूने से अधिक प्राप्त हो सकता है। (४) यदिऋणी ऋण का कुछ भाग दे देता है और ऋणदाता कुछ छूट दे देता है, जिरो मिताक्षरा (याज्ञ० २।३६) ने रेक कहा है, और सम्पूर्ण प्राप्ति को कम कर देता है, यो ऋणदाता कुछ अतिरिक्त धन पाता है, जिसे मिताक्षरा ने सेक कहा है, और वह मौलिक ऋण में जोड़ दिया जाता है और एक नवीन समझौता हो जाता है, तब 'दामदुपट' का नियम नहीं लागू होता। यदि काल निश्चित न हो, या पहले से निश्चित काल व्यतीत हो गया हो या ब्याज बढ़कर मूल के बराबर हो गया हो तो मांगने पर ऋण लौटा देना पड़ता है। यदि लौटाने पर ऋणदाता ऋण न स्वीकार करे तो व्याज का बढ़ना बन्द हो जाता है और ऋणी उसे किसी तीसरे व्यक्ति के पास रख देता है (गौतम १२।३०, याज्ञ० २।४४)। वसिष्ठ (२१४६) का मनोरंजक कथन है कि राजा के मरने पर ब्याज रुक जाता है किन्तु उत्तराधिकारी के राज्याभिषेक के उपरान्त पुनः बढ़ना आरम्भ कर देता है।'३ नारद (२।३६) का कथन है कि विशेष या स्पष्ट समझौता न हुआ हो तो सामग्रियों के मूल्यों, पारिश्रमिकों, प्रतिभूति, अर्थ-दण्ड, भाट-चारणों को दिये जाने वाले धन तथा जुए पर लगी बाजी पर ब्याज नहीं लगता । यही बात कात्यायन (५०८) ने भी कही है, किन्तु उन्होंने इस सूची में खालों, अन्नों, पेयों, वधू-मूल्य एवं प्रतिभूति को जोड़ दिया है । कौटिल्य (३१२) के अनुसार ऋणी दीर्घकालीन वैदिक यज्ञ में लगा हो या किसी रोग से ग्रस्त हो या अल्पावस्था का (नाबालिग) हो या निर्धन हो (अर्थात् जीविका के साधन से विहीन हो) तो उस पर ब्याज नहीं लगता । नारद (४।१०८) के मत से मित्रता के बल पर दिये गये ऋण पर ब्याज नहीं लगता, जब तक कि कुछ लिखित न हो, किन्तु छः मास बीत जाने पर ब्याज लग जाता है । यही बात कात्यायन ( ५०५) में भी पायी जाती है । और देखिए नारद (४११०६)। ऐसी स्थिति में यदि ऋणी ऋण न लौटाये तो पाँच प्रतिशत ब्याज लगने लगता है। कात्यायन (५०२-५०४) ने याचितक (अल्पकाल के लिए लिये गये धन या वस्तु के ऋण) के विषय में तीन व्यवस्थाएं दी हैं--(१) जब कोई याचितक को बिना चुकाये दूसरे देश चला जाता है तो बिना मांगे ही एक वर्ष के उपरान्त ब्याज बढ़ने लगता है; (२) ऐसी स्थिति में मांगने पर भी जब ऋणी दूसरे देश में चला जाता है तो मांगने के तीन मास उपरान्त ब्याज बढ़ने लगता है; (३) यदि मांगने पर ऋणी धन न लौटाये तो राजा को चाहिए कि मांगने के दिन से लगाकर ब्याज की वसूली कराये, भले ही ऋणी अपने देश में हो और ब्याज के विषय में पहले से कुछ न लिखित हो। इस विषय में मदनरत्न का कथन है कि व्याज-दर याज्ञ० (२।३७) एवं विष्णु० (६४) के अनुसार होगी अर्थात् प्रति मास १/८० भाग (अकृतामपि वत्सरातिक्रमेण यथाविहिताम्) । आधि का तात्पर्य है चल सम्पत्ति के विषय में न्यास(धरोहर) या अचल सम्पत्ति के विषय में बन्धक। नारद (४।११७) का कथन है कि ऋण देने में आधि एवं प्रतिभूति दो प्रकार के विश्वसनीय हेतु हैं तथा साक्षी एवं लेख्य दो प्रमाण हैं । आधि नाम इसलिए पड़ा है कि ऋणदाता को उस पर अधिकार मिल जाता है (नारद ४।१२४) एवं याज्ञ० २०५८ पर मिताक्षरा)। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।६।१८।२०), गौतम (१२।२६), कौटिल्य (३।१२ ने आधि का उल्लेख किया है। मनु (८1१६५) ने बन्धक के अर्थ में आधमन का प्रयोग किया है। बृहस्पति के मत से आधि के चार प्रकार हैं-जंगम, स्थावर, गोप्य (प्रतिज्ञा कराने वाले के पास रखा जानेवाला) एवं भोग्य (जिसका भोग किया जाय)। १३. राजा तु मृतभावेन द्रव्यवृद्धि विनाशयेत । पुनः राजाभिषेकेण द्रव्यमूलं च वर्धते ॥ वसिष्ठ (२०४६)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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