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वृद्धि (सूद) का नियन्त्रण; दामदुपट और देखिए कात्यायन (४६८) । व्याज-दर देश-काल पर भी निर्भर थी। मनु (८।१४१ = नारद ४११००) का कहना है कि प्रति मास दो प्रतिशत ब्याज लेना अनुचित है। मध्यकाल में ब्याज अधिक लिया जाता था। येवर अभिलेख (एपिप्रैफिया इण्डिका १२, पृ० २७३) में २५ प्रतिशत ब्याज का उल्लेख है। याज्ञ० (२।३८) ने घने वनों एवं समुद्र से होकर जाने वाले ऋणियों पर क्रमशः १० प्रतिशत एवं २० प्रतिशत ब्याज लगाने की छूट दी है, क्योंकि ऐसे ऋणी जलपोतों को हानि या डाकुओं की लूट से सब कुछ खो सकते हैं और ऋणदाताओं का मूल धन भी समाप्त हो सकता है। मनु (८।१५७) ने ऐसे विषयों में ब्याज लगाने की बात चतुर ऋणदाताओं पर ही छोड़ दी है। इस विषय में और देखिए कौटिल्य (३।२)।१२
स्मृतियों में ऋण-सम्बन्धी अन्य नियमों का भी प्रतिपादन हुआ है। इस विषय में सभी एकमत हैं कि ऋणदाता ऋणी से ऋण का दुगना (मूल धन और ब्याज दोनों के रूप में) एकबारगी नहीं प्राप्त कर सकता। देखिए कौटिल्य (३।२), मनु (८।१५१), गौतम (१२।२८), याज्ञ ० (२।३६), विष्णु० (६।११), नारद (४११०७) एवं कात्यायन (५०६) । इस नियम को द्वैगुण्य की संज्ञा दी गयी है । आजकल इसे 'दामदुपट' कहा जाता है। इसके विषय में हम नीचे पढ़ेंगे। वस्तुओं के व्याज के रूप में सामग्री आदि के विषय में मतैक्य नहीं है। इस विषय में विस्तार के साथ कहने की आवश्यकता नहीं है । मनु (८।१५१) का कथन है कि अनाज, फल, ऊन, भारवाही पशुओं तथा घृत-दूध आदि के ऋणों में पांच गुने से अधिक नहीं लिया जा सकता। याज्ञ० (२॥३६) के अनुसार पशुओं एवं दासियों के विषय में उनकी सन्ताने लाभ रूप में ली जाती हैं; तेल, घृत के ऋण में अधिक-से-अधिक आठ गुना प्राप्त किया जा सकता है; किन्तु परिधानों एवं अन्नों के ऋण में क्रमशः चौगुना एवं तिगुना लिया जा सकता है। वसिष्ठ (२।४४-४७) का कहना है कि अन्नों, पुष्पों, जड़ों (कन्दों या मृलों), फलों एवं तेलों में तिगुना तथा तोलकर दी जाने वाली वस्तुओं में आठ गुना लिया जा सकता है । और देखिए विष्णु (६।१२-१५) ! विष्णु० (६।१७) का कथन है कि जहाँ कोई नियम न हो वहाँ ऋण का अधिक से अधिक दुगुना लिया जा सकता है (अनुक्तानां द्विगुणा)। कात्यायन (५७०-५७२) के अनुसार बहुमूल्य रत्नों, मोतियों, सीपियों, सोना, चाँदी, फलों, रेशम, ऊन पर ऋण के रूप में दुगना तथा तैलों, पेय पदार्थों, घृत, खाँड, नमक तथा भूमि पर आठ गुना तथा साधारण धातुओं पर पाँच गुना लाभ लिया जा सकता है। और देखिए बृहस्पति एवं व्यवहारनिर्णय (पृ० २२६)।
आधुनिक 'दाम-दुपट' के विषय में मनु (८।१५१) एवं गौतम (१२।२८) ने इस प्रकार कहा है-'एक बार ही मूल धन एवं ब्याज के रूप में जो कुछ लिया जाता है वह ऋण के दूने से अधिक नहीं हो सकता।' ऋण केवल ऋणी से ही नहीं बल्कि उसकी तीन पीढ़ियों से भी प्राप्त किया जा सकता है, अतः ऋण चुकाने की कोई अवधि नहीं थी और ऋणदाता स्वभावतः चाहता था कि ब्याज बढ़ता जाय । इसी से ऋषियों ने यह नियम बना दिया कि ऋण की वसुली दूने से अधिक नहीं हो सकती। इस नियम से ऋणदाता के अति लोभ पर नियन्त्रण लग गया । इस विषय में छूट के लिए देखिए मनु (८.१५१) की विभिन्न टीकाएं एवं अन्य निबन्ध, यथा मिताक्षरा (याज्ञ० २।३६), व्यवहारमयूख तथा मनु (८।१५४-१५५) एवं याज्ञ० (२।३६) । एक मत यह है कि (१) यदि ब्याज प्रति दिन, प्रति मास या प्रति वर्ष लिया जाय और एकबारगी न माँगा जाय तो ब्याज की अधिकता भूल धन से कई गुनी बढ़ जायगी । (२)यदि ब्याज कुछ समय तक बढ़ता जाय और एक नया समझौता हो कि अब से मूल धन के साथ ब्याज मिलकर ऋण माना
१२. सपादपणा धा मासवृद्धिः पणशतस्य । पञ्चपणा व्यावहारिको । दशपणा कान्तारकाणाम् । विंशतिपणा सामुद्राणाम् । ततः परं कर्तु : कारयितुश्च पूर्वः साहसदण्डः । श्रोतृणामेककं प्रत्यर्थदण्डः । अर्थशास्त्र (२।३) ।
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