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________________ ७७६ धर्मशास्त्र का इतिहास अथवा कोई निक्षेप या प्रतिभूति लेकर ही लेख्यप्रमाण के साथ या साक्षियों की उपस्थिति में ऋणी को ऋण दे। ब्याज या तो ऋण देते समय लिखित होना चाहिए (कृत) या (अकृत) अलिखित होना चाहिए, जैसा कि विष्णुधर्मसूत्र (४४) में आया है। याज्ञवल्क्यस्मृति (२:२८) एवं विष्णु० (६॥३) में एक सामान्य नियम आया है कि सभी जातियों के ऋणियों को चाहिए कि वे सभी जातियों के ऋणदाताओं को ब्याज दें जो पारस्परिक समझौते से तय किया जाय और जिसमें प्रतिज्ञापत्र एवं ब्याज-दर आदि सम्मिलित हों। यद्यपि यह एक सामान्य नियम था, किन्तु मनु (८।१५२) एवं बृहस्पति ने पूर्वनिश्चित ब्याज-दर से अधिक अथवा एक वर्ष से अधिक समय तक अधिक ब्याज लेने, चक्रवृद्धि ब्याज लेने या मूल धन के दुगने से अधिक धन लेने आदि की भत्सना की है। स्पष्ट है कि स्मृतिकारों ने ब्याज लेने की प्रवृत्ति को भत्सना की है और उसे ब्रह्म-हत्या से अधिक पापमय कृत्य माना है (देखिये बौधायनधर्मसून १।५।६३; वसिष्ठ २।४०-४२; विवादचिन्तामणि पृ० ६; गृहस्थरत्नाकर पृ० ४४५; विवादरत्नाकर पृ० १४) । कई दृष्टिकोणों के आधार पर ब्याज-दर के विषय में स्मृतियों ने नियम दिये हैं। गौतम (१२।२६),याज्ञ ० (२।३७), बौधायन० (११५।६०-६१), मनु (८।१४० = नारद ४१६६), बृहस्पति, वृद्ध-हारीत (७।२३५) आदि ने सर्वप्रथम वसिष्ठ द्वारा उपस्थित किये गये नियम की ओर संकेत किया है और कहा है कि प्रति मास मूल धन का १/८० भाग लेना चाहिए, जिससे छः वर्ष आठ महीने में मूलधन दूना हो जाय । वृद्ध-हारीत का कथन है कि दूना ब्याज तभी लिया जाना चाहिए जब कि ऋण उगाहन के लिए कुछ प्रतिज्ञा न की गयी हो । याज्ञवल्क्य एवं व्यास ने व्यवस्था दी है कि यह नियम तभी उचित है जब कि प्रतिभूति के रूप में कोई वस्तु प्रतिज्ञापित हो चुकी हो। याज्ञ० (२।३७), मनु (८.१४२ =नारद ४।१००), विष्णु० (६।२) ने विकल्प भी दिया है कि वर्णों के अनुसार २, ३, ४ या ५ प्रतिशत प्रति मास ब्याज के रूप में लिया जाना चाहिए (अर्थात् ब्राह्मण से २ प्रतिशत, क्षत्रिय से ३ प्रतिशत आदि)।११ याज्ञ० (२।३७) ने लिखा है कि ये ब्याज-दरें तभी मान्य हैं जब कि प्रतिभूति (जमानत) के रूप में कुछ प्रतिज्ञापित न हो । व्यास (पराशरमाधवीय ३, पृ० २२१) ने लिखा है कि मासिक दर मूलधन की १८० तब होनी चाहिए जब कि ऋण के लिए कुछ बन्धक रखा गया हो और १/६० तब होनी चाहिए जबकि प्रतिभूति के रूप में कुछ रखा गया हो, और दो प्रतिशत प्रति मास तब होनी चाहिए जब कि केवल व्यक्तिगत प्रतिभूति हो । अनुशासनपर्व (११७।२०) ने अधिक ब्याज लेनेवाले को नरक का भागी माना है। कौटिल्य (३१२)ने अधिक ब्याज लेनेवाले पर दण्ड लगाया है। १०. परिपूर्ण गृहीत्वाधि बन्धं वा साधुलग्नकम् । लेख्यारूढ़ साक्षिमद्वा ऋणं दद्याद्धनी सदा ॥ (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १३५; पराशरमाधवीय ३, पृ० २२०); परिपूर्ण सवृद्धिकमूलद्रव्यपर्याप्तमित्यर्थः । स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १३५ । अमरकोश एवं बृहस्पति ने आधि एवं बन्ध को समानार्थक माना है। कुछ लोगों ने दोनों में अन्तर बताया है; आधि चलद्रव्य या अचल सम्पत्ति का प्रतिज्ञापत्र या बन्धक (भोग या बिना भोग का) है तथा बन्ध वह है जो विश्वास उत्पन्न करने के लिए किसी परस्पर-मित्र के पास ऋणी की कोई वस्तु रख देने से सम्बन्धित है। 'विवक्षितं बन्धशब्दस्यार्थमाह नारदः । निक्षेपो मित्रहस्तस्थो बन्धो विश्वासकः स्मृतः॥' इति । नारद (व्यवहारप्रकाश पृ० २२४) । व्यवहारमयूख (पृ० १६६) के अनुसार बन्ध एक प्रकार का वह अंगीकार है जो ऋणी द्वारा किया जाता है कि वह तब तक अपनी भमि, घर या कोई सम्पत्ति नहीं बेच सकता जब तक वह ऋणदाता को ऋण चुका न दे। और देखिये मदनरत्न । ११. याज्ञवल्क्य (२।३६) को टोका में विश्वरूप ने बृहस्पति को उद्धृत करते हुए लिखा है कि वर्गों के अनुसार ब्याजदर बढ़नी चाहिए । यथा-पादोपचयात्क्रमेणेतरेषाम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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