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ऋण और सूद
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है ( वसिष्ठ २१४१ ) | स्पष्ट है, यहाँ इसे एक पातक रूप में माना गया है । किन्तु यदि प्रति मास व्याज ( सूद) मूल का १/८० भाग लिया जाय तो वह धर्म्यं ( उचित) ठहराया गया है ( गौतम १२।२६ ; वसिष्ठ २/५०; कौटिल्य ३।२ एवं मनु ८।१४० - १४१ ) ८
मेगस्थनीज (फ्रे० २८, पृ० ७२ ) ने लिखा है- 'भारतीय न तो ब्याज लेते हैं और न यही जानते हैं कि ऋण कैसे लिया जाता है ।' किन्तु उसे इस विषय में भ्रम हो गया है, क्योंकि वह पुनः लिखता है ( पृ०७३) 'जो अपना ऋण या धरोहर नहीं प्राप्त कर पाता उसे न्याय से सहायता नहीं मिलती। ऋणदाता को किसी दुष्ट पर विश्वास करने पर अपने
को दोषी ठहराना चाहिए ।'
नारद (४।१) ने ऋणदान के सात प्रमुख रूप दिये हैं-- (१) कौन-सा ऋण दिया जाना चाहिए, (२) कौन-सा नहीं, (३) किसके द्वारा, (४) कहां, ( 2 ) किस रूप में, (६) ॠण देते समय एवं (७) लौटाते समय के नियम । इनमें प्रथम पाँच का सम्बन्ध ऋणदाता से है और अन्तिम दो का ऋणी से । बृहस्पति का कहना है कि कुछ लोगों ने वृद्धि (ब्याज या सूद) के चार प्रकार, कुछ ने पाँच तथा कुछ ने छः प्रकार दिये हैं । नारद (४।१०२१०४) ने ये चार प्रकार दिये हैं-- (१) कारिता ( जो ऋणदाता द्वारा निश्चित की जाय ); (२) कालिका ( प्रति मास दी जाने वाली वृद्धि ); (३) कायिका ( एक पण या चौथाई पण जो प्रति दिन दिया जाय किन्तु मूल ज्यों-कात्यों पड़ा रहे ) एवं (४) चक्रवृद्धि ( वह वृद्धि जो ब्याज पर भी लगती है) । मनु ( ८।१५२ ) ने भी इन चारों का उल्लेख किया है, किन्तु टीकाकारों ने इन्हें विभिन्न रूपों में लिया है। बृहस्पति एवं व्यास (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १५४) ने कायिका को ऐसा ब्याज माना है जो शरीर से ग्रहण किया जाय, यथा-ऋण में दी हुई गाय का दूध, अथवा दास या बैल से काम लेना । बृहस्पति ने अन्य प्रकार भी जोड़े हैं, यथा -- शिखावृद्धि ( शिखा की भाँति बढ़ने वाला सूद, अर्थात् जिस प्रकार सिर की शिखा प्रति दिन बढ़ती जाती है) एवं भोगलाभ ( यथा - गृह का उपयोग, भूमि का अन्न ग्रहण, जैसा कि बन्धक में होता है) । गौतम ( १२।३१।३२ ) ने छः प्रकार दिये हैं, किन्तु भोगलाभ के स्थान पर आधिभोग लिखा है, जिसे कात्यायन (५०१) ने बन्धक में दी हुई सम्पत्ति के पूर्ण उपभोग के ऋण के रूप में लिया है । कात्यायन ( ४६८- ५००) ने कारिता, शिखावृद्धि एवं भोगलाभ की व्याख्या की है ।
बृहस्पति का कहना है कि ऋणदाता को चाहिए कि वह प्रतिज्ञापत्र या बन्धक (किसी परस्पर मित्र के पास )
८. कुसीदवृद्धिर्धम्य विशतिः पञ्चमाषिकी मासम् । गौतम ( १२/२६ ) ; सपादपणा धर्म्या मासवृद्धिः पणशतस्य । कौटिल्य (३२) |
६. वृद्धिश्चतुविधा प्रोक्ता पञ्चधान्यः प्रकीर्तिता । षड्विधास्मिन् समाख्याता तत्त्वतस्तां निबोधत ॥ बृहस्पति (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १५४, व्यवहारनिर्णय पृ० २२४ ) ; कायिका कर्मसंयुक्ता मासग्राह्या तु कालिका । वृद्धेव द्धिश्चक्रवृद्धिः कारिता ऋणिना कृता । प्रत्यहं गृह्यते या तु शिखावृद्धिस्तु सा स्मृता ॥ गृहात्तोष: ( स्तोमः ५1१ ) शद: क्षेत्रात् भोगलाभः प्रकीर्तितः ॥ बृहस्पति (अपरार्क पृ० ६४२, स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १५४, पराशरमाधवीय ३, पृ० २२० - २२१ ) । व्यवहारनिर्णय ( पृ० २२५ ) ने इसे नारद को उक्ति माना है -- शिखेव वर्धते नित्यं शिरश्छेदान्निवर्तते । मूले दत्तं तथैवैषा शिखावृद्धिस्ततः स्मृता ॥ हरदत्त ( गौतम १२।३२ ) एवं सरस्वतीविलास पृ० २३३ ) में कात्यायन की उक्ति इस प्रकार है-- आधिभोगस्त्वशेषो यो वृद्धिस्तु परिकल्पितः । प्रयोगो यत्र चैवं स्यादाधिभोगः स उच्यते । कात्यायन (स्मृतिचन्द्रिका २, पृ० १५४, विवादरत्नाकर पृ० १२, विवादचिन्तामणि
पृ० ४) ।
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