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________________ धर्मशास्त्र का इतिहास ( ३३।१ ) में विद्यमान हैं । इस प्रकार के आध्यात्मिक ऋणों के साथ आगे चलकर अन्य सार्वभौमिक ऋणों की परम्पराऐं बँधती चली गयीं । आदिपर्व (१२०।१७।२० ) में चार ऋणों की चर्चा की गयी है; तीन वैदिक ऋण एवं चौथा मनुष्य ऋण, (जो सबकी भलाई से संबन्धित है ) । अनुशासन पर्व में पाँच ऋणों की चर्चा है; देव ऋण, ऋषिऋण, पितृ ऋण, विप्र ऋण एवं अतिथि ऋण ॥ ४ ७७४ इन्हीं ऋणों के आधार पर अन्य लौकिक ऋणों के लेन-देन की परम्पराएं बँधीं, ऐसा लगता है। 'ऋण' शब्द आध्यात्मिक एवं लौकिक दोनों प्रकार के ऋणों में प्रयुक्त हो गया । इसी से पुत्र अपने पूर्व पुरुषों के आध्यात्मिक एवं लौकिक ऋणों को चुकाने का उत्तरदायी माना गया। देखिये नारद ( ४।५-६ एवं ४५ ६ तथा ६) । कात्यायन (५५१५६१) का कहना है कि यदि कोई ऋणी बिना ऋण चुकाये मर जाता है तो वह ऋणदाता के घर में दास, नौकर, स्त्री या पशु रूप में जन्म लेकर रहता है । इसी भावना से आगे चलकर वह सिद्धान्त उत्पन्न हुआ जिसके अनुसार पुत्र को अपने पिता का ऋण चुकाने का उत्तरदायी ठहराया गया। भले ही उसे अपने पिता से किसी प्रकार की सम्पत्ति वसीयत रूप में न मिली हो । ६ नारद (४१६८) ने कुसाद की परिभाषा यह बतलायी है कि मूलधन के फलस्वरूप निश्चित लाभ (जैसा कि पहले तय किया गया हो ) की प्राप्ति करने को कुसीद कहा जाता है, और वे लोग, जो इस प्रकार की वृत्ति करते हैं, कुसीदी कहे जाते हैं । बृहस्पति का कथन कुछ और है; जो चार गुने या अठगुने के रूप में किसी दुखित व्यक्ति से, बिना किसी संकोच या अनुताप ( यह सोचकर कि यह दुखी है, इससे नहीं ग्रहण करना चाहिए) के ग्रहण किया जाय, उसे कुसीद कहा जाता है। नारद ( ४|११०) ने वार्धुष शब्द को अनाज के ब्याज के रूप में ग्रहण किया है। आपस्तम्बधर्मसूत्र (१।६।१८।२२ ) एवं बौधायनधर्मसूत्र ने वार्धुषिक शब्द का और पुनः आपस्तम्बधर्मसूत्र (१६२७।१० ) ने वृद्धि शब्द का प्रयोग किया है । वसिष्ठ (२०४१-४२ - बौधायनधर्म सूत्र ११५२६३-६४ ) ने लिखा है कि वार्धुषिक ( सूदखोर ) वह है जो सस्ते भाव में खरीदा हुआ अन्न देकर बदले में अधिक मूल्य वाला अन्न ग्रहण करता है । ब्राह्मणहत्या और सूदखोरी को एक ही तराजू में तोलने पर ब्रह्म हत्यारे का पलड़ा ऊपर चला जाता है और सूदखोर का झुकता ४. ऋणैश्चतुभिः संयुक्ता जायन्ते मानवा भुवि । पितृदेवषमनुजैर्वेयं तेभ्यश्च धर्मतः ॥......यज्ञस्तु देवान् प्रीणाति स्वाध्यायतपसा मुनीन् । पुत्रैः श्राद्धः पितृ श्चापि आनृशंस्येन मानवान् ॥ आदिपर्व ( १२०।१७-२० ), ऋणमुन्मुच्य देवानामृषीणां च तथैव च । पितॄणामथ विप्राणामतिथीनां च पञ्चकम् || अनुशासनपर्व ( ३७/१७) । ५. पूजनीयास्त्रयोऽतीता उपजीव्यास्त्रयोऽग्रतः । एतत्पुरुषसन्तानमृणयोः स्याच्चतुर्थके ॥ तपस्वी चाग्निहोत्री च ऋणवान् म्रियते यदि । तपश्चैवाग्निहोत्रं च सर्वं तद्धनिनां धनम् ।। नारद ४६ एवं ६ ; पितृणां सूनुभिर्जातं दानेनवाधमादृणात् । विमोक्षस्तु यतस्तस्मादिच्छन्ति पितरः सुतान् ॥ उद्धारादिकमादाय स्वामिने न ददाति यः । स तस्य दासो भृत्यः स्त्री पशुर्वा जायते गृहे ॥ कात्यायन ५५१, ५६१ ( स्मृतिचन्द्रिका पृ० १६८; पराशरमाधवीय ३, पृ० २६१ एवं २६३; व्यवहारप्रकाश पृ० २७७ ) । ६. स्थानलाभनिमित्तं हि दानग्रहणमिष्यते । तत्कुसीदमिति प्रोक्तं तेन वृत्तिः कुसीदिनाम् ॥ नारद ( ४६८ ) ; विवादचिन्तामणि ने व्याख्या की है --"स्थानमवस्थानं मूलधनस्य तस्मिन्सत्येव लाभो वृद्धिस्तदर्थं वानग्रहणम् ।" 'देयद्रव्यं दीयत इति दानमिति व्युत्पत्तेः तस्य ग्रहणमधर्मेण ।' विवादचन्द्र ( पृ० २) | ७. कुत्सितात्सीदतश्चैव निविशंकैः प्रगृह्यते । चतुर्गुणं चाष्टगुण कुसीदाख्यमतः स्मृतम् ॥ बृहस्पति (व्यवहारमयूख द्वारा उद्धृत, पृ० १६७ ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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