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________________ अध्याय १६ समय (संविदा, करार) व्यवहार के तीन मुख्य पद (विषय, शीर्षक या स्थान) हैं-ऋणादान (ऋण की भरपाई), स्त्रीपुंसयोग (स्त्री एवं पुरुष के सम्बन्ध) एवं दायभाग (सम्पत्ति का विभाजन), जो आज भी भारत में बहुत सीमा तक टीकाकारों के विश्लेषण के अनुसार लागू हैं । हम इन पर विस्तार के साथ लिखेंगे और शीर्षकों को संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे। सभी स्मतियों एवं निबन्धों में ऋणादान को सर्वप्रथम स्थान मिला है। पत्नी एवं पति के सम्बन्ध के शीर्षक पर हर कुछ प्रथम भाग में ही पढ़ लिया है। दायभाग का वर्णन अन्त में किया जायगा और अन्य के वर्णन में हम मनु के अनुक्रम का अनुसरण करेंगे । बहुत-से व्यवहार-पद समयों (संविदा, करार, कांटेक्ट) के कानून से सम्बन्धित हैं, यथा--ऋण, बन्धक, प्रतिभू या लग्नक (जामिन), क्रय, साझा, नौकरी एवं वेतन-सम्बन्धी समय (करार) प्राचीन लेखकों ने व्यवहार में संलग्न व्यक्तियों द्वारा एक-दूसरे से सम्बन्ध स्थापित करने के विषय में बहुत कुछ कहा है । अर्थशास्त्र (३।१) ने इस विषय में विस्तार के साथ लिखा है जो संक्षेप में नीचे दिया जा रहा है। आश्रित, अल्पवयस्क, अति बूढ़े, महापातकी, अंग-भंगी, बुरे व्यसन (शराब एवं वेश्या-गमन) में लिप्त लोग अयोग्य हैं और इनके साथ किया गया समय (करार) या व्यवहार-सम्बन्धी समझौता अवैधानिक माना जाता है । आश्रित लोगों में निम्न की गणना होती है--पिता के रहते पुत्र, पुत्र के व्यवस्थापक (घर के मालिक) होने पर पिता, घर छोड़ा हुआ भाई, छोटा भाई, जिसकी सम्पत्ति का अभी विभाजन न हुआ हो, पति एवं पुत्र के रहते स्त्री, दास एवं वेतनग्राही व्यक्ति । किन्तु ये आश्रित लोग यदि आश्रयदाता चाहे तो, बन्धक समयों (बाइंडिंग एग्रीमेण्ट) में सम्मिलित हो सकते हैं। जो लोग समय करते समय क्रोध में हों, उन्मत्त हों, आर्त (दुःखित) हों या पागल हों, वे अयोग्य कहे जाते हैं, अर्थात उनका प्रतिज्ञा-पन्न (इकरारनामा) या समय अवैधानिक माना जाता है। याज्ञ० (२।३१-३२) ने भी ऐसी ही बातें अपने ढंग से कहीं हैं--जो समय बलवश या कुटनीति अथवा प्रवंचना से किये गये हों उन्हें राजा द्वारा अयोग्य अथवा अवैधानिक सिद्ध कर देना चाहिए। ऐसे समय जो स्त्रियों द्वारा (या अन्य व्यक्तियों द्वारा, जैसा कि ऊपर कहा गया है),या राति में, घर के भीतर, नगर या ग्राम के बाहर (जगल आदि में किये गये हों.या शत्र द्वारा किये गये हों या विपक्षियों द्वारा, अनधिकृत या ऐसे लोगों द्वारा किये गये हों जो वास्तविक व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखते, तो ऐसे समय अवैधानिक कहे जाते हैं। मनु (८।१६५ एवं १६८) ने भी कहा है कि क्रय, बन्धक, दान आदि यदि बलवश एवं कटनीति से किये गये हों तो वे अवैधानिक सिद्ध हो जाते हैं । नारद (४।२६-४२) ने इस विषय का निरूपण विस्तार से किया है। नारद के ये वचन मनोरंजक हैं; संसार में तीन व्यक्ति स्वतन्त्र हैं--'राजा, वैदिक गुरु एवं घर का मालिक (३२) । पत्नियाँ, बच्चे एवं दास पराधीन हैं; पैतृक सम्पत्ति के विषय में घर का मालिक स्वतन्त्र है (३४)।' कात्यायन (४६७) ने कहा है कि स्त्रियों, अल्पवयस्कों एवं दासों को ऋण नहीं देना चाहिए। स्त्रियों से करार करने का तात्पर्य यह है कि उनका यह कार्य उनके पतियों, कुटुम्ब एवं गृह-सम्पत्ति पर वैधानिक अधिकार नहीं रखता। यों तो स्त्रियाँ अपनी सम्पत्ति पर अधिकार रखती हैं और उसका लेन-देन कर सकती हैं, किन्तु पतियों का कुछ नियंत्रण रहता ही है (इस विषय में हम स्त्रीधन वाले प्रकरण में सविस्तर लिखेंगे)। याज्ञ० (२।२३), नारद (४१६७), कात्यायन (५१७) आदि ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002790
Book TitleDharmshastra ka Itihas Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPandurang V Kane
PublisherHindi Bhavan Lakhnou
Publication Year1973
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size12 MB
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